'अपने भीतर की देहाती औरत को जगाएं नेता'
- नताशा बधवार
- फ़िल्मकार और स्तंभकार
उन गर्मियों में मैं सोंती और इंदर सिंह के घर में दो माह तक रुकी थी.
मेरा बैग उनके घर में बनी एक खूंटी से टंगा था. मेरी दो किताबें और डायरी ताक पर रखी हुईं थीं.
उनका बच्चा मुझसे चिपका रहता और मुझे व्यस्त रखता था. वह अक्सर भूखा रहता था.
झाबुआ ज़िले में 1992 को सूखा वर्ष घोषित किया गया था.
बारिश नहीं हुई और छोटे किसान अपने परिवार का पेट भरने के लिए पर्याप्त ज्वार और बाजरा पैदा नहीं कर सके थे.
खोडम्बा के दिन
ज्वार और बाजरा जैसे मोटे अनाजों को गेहूं और चावल की तुलना में कम पानी की जरूरत होती है. दक्षिणी मध्य प्रदेश में भील और भीलाला आदिवासियों का यही मुख्य भोजन होता है.
इस गांव को खोडम्बा के नाम से जाना जाता है. यहां पहुंचने के लिए सबसे नज़दीक के बस स्टॉप से पहाड़ियों को पार करते हुए चार घंटे की पैदल यात्रा करनी पड़ती है.
इतना ही नहीं तहसील मुख्यालय अलीराजपुर से इस बस स्टॉप पर पहुंचने के लिए छह घंटे की सड़क यात्रा करनी पड़ती है. इस यात्रा के दौरान इंसान धूल से सन जाता है.
मैं खोडम्बा के बच्चों और किशोरों को हिंदी पढ़ना और लिखना सिखा रही थी.
वे अधिकतर समय मुझ पर हंसते थे. कभी-कभी वे दुखी महसूस करते और मुझे अच्छा महसूस कराने की कोशिश करते.
वहां से आने के बाद मुझे उनका कोई पत्र नहीं मिला, लेकिन मैंने अपनी डायरी में जरूर कुछ लिखा.
मैंने गायों के बारे में लिखा कि वे इंसान के चेहरों को भांपती हैं, धैर्य पूर्वक इंतजार करती हैं कि हम अपना काम पूरा करें और जाएं ताकि उसे अपने लिए कुछ खाने को मिल जाए.
मैं जहां से आई थी उस बारे में सुनकर सोंती आश्चर्यचकित थी.
वह देखती थी कि मैं काफी कुछ पढ़ और लिख सकती हूं, लेकिन मैं नहाने के लिए कुएं से एक बाल्टी पानी नहीं ला सकती थी.
मैं एक वयस्क महिला थी लेकिन एक बच्चे की तरह बेसहारा दिखती थी- भूखी, गंदी, आलसी और निकम्मी.
उसके बच्चे की तरह हमेशा उसके किचन के आसपास मंडराते रहते थे.
सोंती की जि़ंदगी
सोंती ने मुझसे पूछा था कि जहां की आप रहने वाली हैं वहां क्या खेती करने के लिए जमीन है.
- नहीं मेरे पास नहीं है.
उसने पूछा था कि क्या आपके पास गायें और मुर्गियां हैं.
- मेरे पास नहीं है.
उसने मेरी स्थिति को समझने को कोशिश की. क्या मैं उसके गांव इसलिए गई थी क्योंकि मेरे पास कुछ नहीं था?
सोंती परिवार के हर सदस्य के लिए एक बड़ी और पतली रोटी पकाती थी और मेरे लिए दिन में दो बार यह काम करती थी.
मसूर की दाल से बने सूप में मामूली नमक होता था. यहां यही मिलता था.
वह जलावन के लिए लकड़ियां लाने जंगल जाती, बारिश होने पर मक्का बोने के लिए खेत तैयार करने जाती. वह पीने का पानी लाने के लिए बहुत दूर जाती.
उस साल आम के पेड़ों में फल नहीं लगे थे, जमीन सूखी होने के कारण जामुन के पेड़ से मुरझाए फल गिर रहे थे.
गांव में जब भी कोई शादी होती थी तो सोंती पूरी रात गाना गाती और डांस करती थी.
एक बच्चे को अस्पताल ले जाते समय मौत हो जाने पर उस दंपति का दुख बांटने और ढांढ़स बढ़ाने के लिए वह उसके पास तीन दिनों के लिए चली गई.
खाने का खेल
एक दिन उसने मुझे एक कटोरी मीट और मक्के की रोटी परोसी. मुझे खाते हुए देखने के लिए कई लोग इकट्ठा हो गए.
मैंने पूछा, ''यह क्या है.'' किसी ने इसे खरगोश जैसे छोटे जानवर का मांस बताया तो दूसरे ने हाथ तानकर किसी बड़े जानवर का गोश्त होने का संकेत किया.
मैंने पूछा, ''क्या यह गाय है''
उसने विरोध किया, ''नहीं, नहीं''
''क्या यह बाल वाले जानवर का मीट है, क्या उसके सींग भी है, क्या यह एक लोमड़ी है? क्या बकरी है?''
वे खिल्ली उड़ा रहे थे और मुझे कंफ्यूज्ड कर रहे थे, लेकिन उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि मैं उस दिन का अपना खाना खांऊ.
दिल्ली की दुनिया
उस सुदूर गांव में खुले आसमान के नीचे मैं टमाटरों और ककड़ी और खीरों के बारे में सपना देखती थी.
मैंने सोचा कि दिल्ली आने पर मैं अपने मेहमानों और छात्रों का कितने ठीक तरीके से ध्यान रख पाऊंगी.
मैंने इंडिया गेट के पास इन बच्चों के साथ सड़क पार करने की कल्पना की, ठीक उसी तरह जिस तरह वो जंगलों और पहाड़ों को पार करते समय मेरा ध्यान रखते थे.
मैंने अपने मेजबान परिवार के अपने शहर में होने के बारे में कल्पना की.
सोंती जैसी गांव कोई महिला या कोई भी देहाती महिला हमारे लिविंग रूम के सोफे पर कभी नहीं बैठी होगी.
मैं इस विचार से कांप उठी कि एक बार अपनी धरती से दूर हो जाने के बाद सोंती दिल्ली के किसी ट्रैफिक लाइट पर कार में बैठे लोगों को फूल या प्लास्टिक का सांता क्लाज बेचते हुए खुद को पाएगी.
हमारे जैसे कुछ लोग इन भिखारी महिलाओं की तरफ से मुँह मोड़कर मूड ठीक करने के लिए कार में म्यूजिक बदलने लगेंगे.
''देहाती औरत''
इस सप्ताह हमने ''देहाती औरत'' मुहावरे के बारे में सुना, जिसे एक गाली के अंदाज में इस्तेमाल किया गया.
पाकिस्तान के एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर एक ''देहाती महिला'' की तरह व्यवहार करने का आरोप लगाया.
हालांकि बाद में पत्रकार ने ऐसा कुछ कहने से इनकार कर दिया. इसके बाद नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि यह प्रधानमंत्री का अपमान है.
इससे लोगों के पूर्वाग्रह का पता चलता है.
अपने विरोधी की छवि को धूमिल करने के लिए ऐसे भी पुरुष हैं जो दूसरों को महिला या देहाती महिला कहकर उसे अपमानित करने की कोशिश करते हैं.
मेरी दादी और नानी दोनों देहाती औरत थीं.
वो विस्थापित थीं. उन्होंने सीमा पार कर बड़ी मेहनत से अपना घर बसाया.
वे गाय का दूध निकालना और चरखा चलाना जानती थीं. उन्होंने अपने बच्चों को अपना लक्ष्य हासिल करने के लायक बनाया.
वे झाबुआ की आदिवासी महिला सोंती की तरह उदार थीं.
संघर्ष और सम्मान
सोंती के पास अपने बच्चों के लिए पर्याप्त खाना नहीं था, इसके बावजूद उसकी इंसानियत मुझे जीवित रखती है.
उसका 18 माह का बेटा मेरी गोद में आकर दूध पीने की आशा में मेरे स्तन से चिपक जाता था.
इसके बावजूद उसकी मां की अपनी दुनिया में मेरे लिए जगह थी.
जब मैं गांवों की महिलाओं से बातचीत करना सीख गई तो मैंने उस इतिहास को जोड़ना सीखा, जिसने मुझे बनाया है.
मैंने हमें बनाने वाले खून और पसीने को समझा. उस जज्बे को समझा, जो अपने बच्चों को जीवित रखने के लिए लड़ता है.
मैंने देहाती औरतों का सम्मान करना सीखा, जो अपनी सभी चीजें दूसरों के साथ बांटती हैं.
वह हर किसी को अपने से बेहतर जीवन देती है.
हमारे नेताओं को अपने भीतर की देहाती महिला को जगाना होगा और उसकी कुछ ताकत और विवेक को खुद में समाहित करना होगा.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)
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