छत्तीसगढ़ः सरकारी से 'अच्छा' मज़दूरों का अस्पताल

  • आलोक प्रकाश पुतुल
  • रायपुर से, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
शहीद अस्पताल, छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ के औद्योगिक शहर भिलाई से क़रीब 95 किलोमीटर दूर दल्ली राजहरा के शहीद अस्पताल में पैर रखने की जगह नहीं है.

तीन मंजिला इमारत के सभी 110 बिस्तरों पर तो मरीज़ हैं ही, अस्पताल के गलियारों में भी मरीज़ बिस्तर पर लेटे हैं.

आधुनिक सुविधाओं से लैस यह सर्वसुविधायुक्त अस्पताल आसपास के ज़िलों के बीमार और घायल लोगों के लिए पहली पसंद है.

अस्पताल के निदेशक डॉक्टर शैवाल जना चिंता के साथ कहते हैं, "बाहर हमने लगभग स्थायी तौर पर बोर्ड लगा दिया है कि अस्पताल में बिस्तर खाली नहीं हैं, लेकिन परेशान लोग अस्पताल की सीढ़ियों पर भी रुककर अपना इलाज कराना चाहते हैं."

नियोगी का सपना

दल्ली और राजहरा लौह अयस्क की खदानों के लिए मशहूर हैं. भारत सरकार के उपक्रम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड यानी सेल के भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए 1955 से दल्ली राजहरा की खदानों से ही लौह अयस्क का निर्यात होता रहा है.

लेकिन दल्ली राजहरा 70 के दशक में तब चर्चा में आया, जब यहां शंकर गुहा नियोगी ने अपने मज़दूर संगठन का काम शुरू किया. नियमित मज़दूरों की तरह ही बोनस समेत दूसरी सुविधाओं के लिए पहली बार छत्तीसगढ़ खान मज़दूर संगठन के बैनर तले 10 हज़ार से अधिक मज़दूर सड़क पर उतरे.

शहीद अस्पताल, छत्तीसगढ़

आंदोलन परवान चढ़ा और शंकर गुहा नियोगी के सपने भी. महिलाओं और युवाओं के लिए तो नियोगी ने कार्यक्रम बनाया ही, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी श्रमिक संगठन ने काम शुरू किया.

एक महिला मज़दूर साथी कुसुमबाई को प्रसव के समय इलाज नहीं मिला और उनकी मौत हो गई तो नियोगी ने महिलाओं के प्रसव संबंधी इलाज के लिए एक डिस्पेंसरी खोलने का निर्णय लिया.

109 मज़दूरों का स्वास्थ्य संगठन बना और 1980 के आसपास एक बंद पड़ी गैराज में डिस्पेंसरी शुरू की गई.

उस वक़्त कोलकाता से चिकित्सा की डिग्री लेकर मज़दूरों के बीच काम करने पहुंचे डॉक्टर शैवाल जना के बालों में अब सफ़ेदी आ गई है पर अपने पुराने दिन याद कर उनकी आंखों में चमक आ जाती है.

शैवाल जना कहते हैं, "हमारा दो नारा था. पहला- मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम और दूसरा-स्वास्थ्य के लिए संघर्ष. हम गांव-गांव जाते और लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करते थे."

मज़दूरों का अस्पताल

शहीद अस्पताल, छत्तीसगढ़
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फिर मज़दूरों के पैसे से डिस्पेंसरी के लिए कमरे बनने शुरू हुए. दिन या रात की पाली में खदान मज़दूर अस्पताल की बिल्डिंग बनाने में मदद करते थे. मज़दूरों के पैसे से ही बिल्डिंग के लिये ज़रूरी सामान ख़रीदे जाते.

भिलाई इस्पात संयंत्र से सेवानिवृत्त होने के बाद शहीद अस्पताल में काम करने वाले पुनाराम कोठवार बताते हैं कि नियोगी जी चाहते थे कि अस्पताल में सारी सुविधाएं हों, लेकिन वह यह देखने के लिए नहीं रहे.

28 सितंबर 1991 को शंकर गुहा नियोगी की हत्या हो गई. कुछ साल बाद लगा कि सब कुछ खत्म हो गया पर मज़दूर फिर एकजुट हुए. हक़ के लिए फिर लड़ाई शुरू हुई और लड़ाई का एक हिस्सा यह अस्पताल भी था.

नियोगी नहीं हैं, लेकिन उनके सपने का अस्पताल तैयार हो गया. अस्पताल में जगह-जगह नियोगी की तस्वीरें टंगी हैं और उनके संदेश भी.

70 के दशक में आंदोलन के दौरान मारे गए 11 मज़दूरों की याद में बने इस शहीद अस्पताल में आज हर दिन औसतन 250 नए मरीज़ ओपीडी पहुंचते हैं. अस्पताल के पास अपना सुविधायुक्त ऑपरेशन थिएटर हैं तो रेडियोलॉजी, पैथॉलाजी लैब समेत जांच और इलाज की अधिकांश सुविधाएं भी. अलग-अलग तरह के मरीजों के लिए अलग-अलग वार्ड तो हैं ही.

फ़ीस बस 5 रुपए

शहीद अस्पताल, छत्तीसगढ़

मरीज़ों से आरंभिक इलाज के लिए 5 रुपए लिए जाते हैं. अस्पताल में भर्ती होने पर रोज़ के पांच रुपए बिस्तर के लिए और 25 रुपए सेवा शुल्क के नाम पर लिए जाते हैं. अस्पताल में सर्जन समेत छह डॉक्टर नियमित तौर पर रहते हैं. मरीजों के लाने-ले जाने के लिए अस्पताल के पास अपनी एंबुलेंस भी है.

प्रसव के लिए पड़ोसी ज़िले कांकेर के कच्चे गांव से पहुंची सोना बाई नेताम के पति कहते हैं, "ऐसी सुविधा हमें और कहां मिलेगी. सरकारी अस्पतालों में तो आप धक्के खाते रहिए. डॉक्टर तो डॉक्टर, कोई नर्स भी आपको नहीं पूछेगी."

शुरुआती दिनों में अस्पताल में केवल खदान मज़दूर और उनके परिजन ही आते थे, अब आसपास के सौ किलोमीटर के दायरे के दूसरे लोग भी यहीं का रुख करते हैं.

अस्पताल का पूरा प्रबंधन 13 मज़दूरों की कमेटी संभालती है. इसके अलावा अस्पताल में कार्यरत 76 दूसरे कर्मचारी भी इस प्रबंधन की आमसभा के सदस्य हैं.

अस्पताल की ज़्य़ादातर नर्स और दूसरे कर्मचारी स्थानीय हैं, जिनके प्रशिक्षण का काम लगातार चलता रहता है. नर्सों को एक साल का प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद वे नर्सें अपनी सुविधानुसार ग्रामीण इलाकों में जाकर काम करती हैं.

दोर्रीठेमा गांव की दिव्या को आठ महीने हो गए और प्रशिक्षण के बाद वे कहीं और जाकर काम करना चाहती हैं. मगर पिछले 22 साल से अस्पताल में काम कर रहीं सुलेखा सिंह इस बारे में सोचती भी नहीं.

शहीद अस्पताल, छत्तीसगढ़

उन्हें हर महीने बीमा और भत्तों के अलावा किसी भी सरकारी कर्मचारी की तरह दूसरी सुविधाएं तो मिलती ही हैं, 10 हज़ार रुपए से ज़्यादा वेतन भी मिलता है.

मुश्किलें

अस्पताल चलाने के लिए किसी तरह का फंड नहीं लिया जाता. सारा खर्च अस्पताल प्रबंधन और श्रमिक संगठन उठाता है पर अस्पताल के निदेशक शैवाल जना के सामने दो बड़ी समस्याएं हैं.

वह बताते हैं कि पिछले पांच साल से उनका अस्पताल ब्लड बैंक के लिए प्रयासरत है लेकिन सरकारी अनुमति नहीं मिली है. इस कारण रोज़ के दर्जन भर से ज़्यादा ऑपरेशनों में मुश्किल आती है. नए क़ानून से भी वे परेशान हैं.

शैवाल जना कहते हैं, "सरकार नर्सिंग एक्ट लाने वाली है. इसके बाद दिक़्क़त यह होगी कि गांवों में प्रारंभिक उपचार के लिए हम जिन सैकड़ों लोगों को साल भर का प्रशिक्षण देते हैं, वह हमें बंद करना पड़ेगा. नतीजतन गांव के लोगों को प्रारंभिक उपचार के लिए भी अस्पताल तक आना पड़ेगा."

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