न जंगल, न ज़मीन, कैसे बचे जान- पूछें किसान

- Author, सलमान रावी
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली
देश भर के कई इलाक़ों से आदिवासी और किसान दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंच रहे हैं.
एकता परिषद के बैनर तले जमा हुए इन प्रदर्शनकारियों में तमिलनाडु, ओडिशा, छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश सहित देश के लगभग 17 राज्यों से आए किसान और आदिवासी लोग शामिल हैं.
कई तरह की विकास परियोजनाओं से विस्थापित हुए इन आदिवासियों और किसानों का आरोप है कि लाखों हेक्टेयर खेतिहर ज़मीन और वन भूमि उद्योगों के लिए अधिग्रहित की गई.
उसके बदले में अगर मुआवजा मिला भी वो बिल्कुल 'ऊंट के मुंह में जीरे' जैसा ही था.

यह लोग हाल ही में लाए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध कर रहे हैं.
रोज़ी-रोटी का सवाल
एकता परिषद के अध्यक्ष रन सिंह परमार कहते हैं, "विकास की परियोजनाओं से विस्थापित हुए करोड़ों आदिवासियों और किसानों को सही तरीके से मुआवजा नहीं मिल पाया है.पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों में रह रहे आदिवासियों को जंगलों पर अधिकार से भी वंचित रहना पड़ा है."

मध्य प्रदेश के धार जिले के रहने वाले गटिया राम, जो भील जनजाति से ताल्लुक रखते हैं, कहते हैं, "मेरे पास पट्टा है मगर अब वन विभाग के लोग मुझे फसल काटने नहीं देते. अपने पट्टे की ज़मीन पर पौधे भी नहीं लगाने देते."
वो कहते हैं, "फसल लगाने पर या पौधे लगाने पर हम पर वन अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर देते हैं. हम कई पुश्तों से इस ज़मीन पर हैं. मगर आज बेदखल कर दिया गया है. हमारे सामने अब रोज़ी-रोटी का सवाल पैदा हो गया है."

बांधवगढ़ के रहने वाले राम भगत सिंह मडकाम कहते हैं, "बांधवगढ़ में टाइगर प्रोजेक्ट से नेशनल पार्क बनाया गया है. हमारी फसल को जंगली जानवर बर्बाद कर देते हैं क्योंकि जंगल में वन विभाग ने ऐसे पेड़-पौधे लगाए हैं जिन्हें जानवर खाते ही नहीं."
मडकाम के अनुसार, "इस वन क्षेत्र से कई गांवों को हटाया गया है और औना-पौना मुआवज़ा दिया गया, आदिवासी इलाका है. प्रशासन को किसी भी काम के लिए ग्राम सभा की मंज़ूरी लेनी अनिवार्य है. मगर अधिकारी ग्राम सभा को कुछ नहीं समझते."

शहडोल से आए मंगल वीर सिंह कहते हैं, "मेरी ज़मीन पर 2008 में बांध बनाया गया, मगर आज तक मुआवजा नहीं मिला है. हम सिंचाई विभाग के अधिकारियों के चक्कर काटते-काटते थक गए हैं. आज मेरे पास जीने खाने का कोई स्रोत नहीं है."
मज़दूर बन गए किसान

मध्य प्रदेश के शियोपुर की रहने वाली निर्मला कहती हैं, "पूनो पालपुर अभ्यारण्य के लिए हमारी ज़मीन का अधिग्रहण किया गया. इस इलाके से 25 गावों को हटाया गया जिनमें मेरा गांव भी था. मेरी नौ बीघे ज़मीन थी. आज मेरे पास कुछ भी नहीं है. अब हम अपना गुज़ारा कैसे करें."

मध्य प्रदेश के ही रहने वाले रवनवास की भी ऐसी ही कहानी है, "वन विभाग ने साल 2000 में हमें अपने गांव से विस्थापित करते समय आश्वासन दिया था कि खेतिहर ज़मीन के बदले हमें अच्छी ज़मीन मिलेगी. मगर उसके बदले उन्होंने बंजर ज़मीन दे दी. अब हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल है कि किस तरह अपने परिवार को चलाएं. हम किसान थे, आज दिहाड़ी मजदूर बन गए हैं."
हालात बद से बदतर

एकता परिषद की श्रद्धा कश्यप कहती हैं कि मध्य प्रदेश में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, क्योंकि बड़े-बड़े उद्योगों के लिए सरकार औने-पौने में किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण कर रही है.

मंगलवार और बुधवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के मुद्दे के साथ-साथ वन अधिकार के मामले को लेकर समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में सत्याग्रह का आह्वान किया गया है.

इस बीच सोमवार को आन्दोलनकारियों के प्रतिनिधियों के साथ गृह मंत्री राजनाथ सिंह की वार्ता भी हुई है. सरकार का कहना है कि वह 24 घंटों में इन मुद्दों पर अपना पक्ष सामने रखेगी.
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