'इसे प्यार नहीं बलात्कार कहते हैं!'

'रश्मि' की कहानी एक ऐसी औरत की कहानी है जो 'पति के हाथों हुए अपने बलात्कार' के लिए क़ानून से इंसाफ़ की मांग कर रही है.

रश्मि पहचान छिपाकर अपनी कहानी दुनिया से साझा करना चाहती है, क्योंकि उसे विश्वास है कि भारत में कई और औरतों की कहानी उनकी कहानी जैसी है, भले ही वो इसके बारे में किसी से कुछ कहना नहीं चाहतीं.

पढ़िए बीबीसी संवाददाता पारुल अग्रवाल के ज़रिए रश्मि की डायरी.

'जबरन शारीरीक संबंध'

''मेरा नाम रश्मि है लेकिन ये मेरा असली नाम नहीं है. मैं एक मुसलमान हूं और आज से ग्यारह साल पहले पढ़ाई के लिए भारत के एक दूर के इलाक़े से दिल्ली आई.

पढ़ाई पूरी करने बाद जल्द ही मैंने नौकरी शुरू की जहां मैं पहली बार अपने पति से मिली.

महिला उत्पीड़न

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किसी भी आम लड़की की तरह मैं अपने लिए प्यार और सुकूनभरी ज़िंदगी चाहती थी और इसलिए जल्द ही मैंने शादी करने का फैसला कर लिया.

मैंने अपने पति के लिए अपना धर्म बदला, अपना नाम बदला और पांच वक्त के नमाज़ी परिवार से आने वाली लड़की एक ब्राह्मण परिवार की बहू बन गई.

लेकिन मेरे ससुरालवाले इस संबंध को कभी अपना नहीं पाए.

शादी के कुछ दिनों बाद से ही इन बातों को लेकर मेरे और मेरे पति के बीच झगड़े बढ़ने लगे और इसका ख़ामियाज़ा मुझे हर रात भुगतना पड़ता था.

मेरी मर्ज़ी हो या न हो मेरे पति जबरन मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाते थे. इस दौरान मुझे काटना, चोट पहुंचाना, तरह-तरह से दर्द देना उनकी आदत बन गई.

मैं उनकी पत्नी थी और इसलिए किसी भी क़ीमत पर मुझे न कहने का अधिकार नहीं था.

'मेरी मर्ज़ी का कोई मतलब नहीं'

महीने के उन दिनों जब मेरी तबियत ठीक नहीं रहती थी, तब भी वह मुझसे ज़बरदस्ती करते थे.

पत्नी को अर्धांगिनी यानी पति का आधा अंग कहते हैं, लेकिन मेरे पति को मेरे दर्द से कोई मतलब नहीं था.

धीरे-धीरे मुझे एहसास होने लगा कि इस शादीशुदा संबंध में मेरे पति के लिए मेरी मर्ज़ी का कोई मतलब नहीं.

उनके ज़बरदस्ती करने पर मैं खुद को छोड़ देती थी. मेरे पति ने एक बार मुझसे कहा कि मैं एक अच्छी बीवी नहीं हो पा रही हूं.

लेकिन मैंने अपने घरवालों की मर्ज़ी के खिलाफ़ शादी की थी और इसलिए हर हाल में इस संबंध को चलाना मेरे लिए ज़रूरी था.

शादी के एक साल बाद 14 फरवरी 2013 की रात जो हुआ उसे याद कर आज भी मेरी रूह कांप जाती है.

'भीतर टॉर्च घुसा दी'

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समाप्त

उस दिन मेरे पति का जन्मदिन था, लेकिन फिर हमारी लड़ाई हुई. उन्होंने मुझे मारा-पीटा और घसीट कर बिस्तर पर ले आए और मेरे साथ फिर ज़बरदस्ती की.

मैंने अपनी पूरी ताकत के साथ उन्हें हटाने की कोशिश की, लेकिन वो नहीं रुके. इसके बाद उन्होंने मेरे भीतर टॉर्च घुसा दी.

जब मैं दर्द से बेहोश हो गई तो वो दरवाज़ा बंद कर चले गए, जिसके बाद मेरे ससुराल वालों ने मुझे अस्पताल पहुंचाया.

इसके बाद मैं कभी अपने पति के घर वापस नहीं गई. अस्पताल से थाने और थाने से अब अदालत. मेरी ज़िंदगी अब इसी के आसपास घूमती है.

लेकिन सबसे बड़ा सवाल जो मुझे खाए जाता है वो ये है कि हमारे समाज में शादी को चलाने और पति को खुश रखना, ये सब औरत की ही ज़िम्मेदारी क्यों है?

मेरा शरीर और मेरी मर्ज़ी क्या कोई मायने नहीं रखता? सेक्स पति-पत्नी के बीच रज़ामंदी का संबंध है या सेक्स के बहाने मेरे पति को मेरे साथ जानवरों जैसा सलूक करने का अधिकार है?

मेरे पति ने मेरे साथ जो किया उसे क़ानून क्या कहता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, लेकिन मेरे शरीर के साथ जो कुछ किया गया उसे अगर आप पति का प्यार कहते हैं तो इसे प्यार नहीं बलात्कार कहते हैं.''

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