स्वर्ण सिंह को क्यों भूला भारत?

  • साक्षी जोशी
  • बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
स्वर्ण सिंह की 100 वीं बरसी
इमेज कैप्शन, स्वर्ण सिंह भारत को आज़ादी दिलाने के प्रयासों में जेल गए थे और उन्हें टीबी हो गई

क्रांतिकारी भगत सिंह के सबसे छोटे चाचा स्वर्ण सिंह भारत में आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे देशभक्तों में अहम कड़ी रहे, लेकिन भारत का यह 'स्वर्ण' देश के लिए अपनी जान देने के 100 साल बाद भी अपने अस्तित्व की तलाश कर रहा है.

जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर इंडियन लैंगुएजेज़ के प्रोफ़ेसर चमन लाल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को एक चिट्ठी लिखी है.

उनकी गुज़ारिश है कि भारत की आज़ादी के लिए किए गए प्रयासों के लिए भारत सरकार को स्वर्ण सिंह के जन्म शताब्दी वर्ष में कोई न कोई कार्यक्रम आयोजित कर उन्हें याद करना चाहिए.

बीस जुलाई, 1910 को भारत को ग़ुलामी से आज़ाद कराने की लड़ाई लड़ते हुए स्वर्ण सिंह ने दम तोड़ दिया था.

क्रांतिकारी भगत सिंह और स्वर्ण सिंह कई मायनों में एक जैसे थे. भगत सिंह की तरह स्वर्ण सिंह भी आज़ादी के दीवाने थे, रिश्ते में उनके पिता किशन सिंह के छोटे भाई थे और यहां तक कि दोनों की मृत्यु भी एक ही उम्र में हुई. स्वर्ण सिंह की भी मृत्यु भगत सिंह की तरह 23 साल की उम्र में हुई थी.

स्वर्ण सिंह का 'मोहब्बत-ए-वतन'

स्वर्ण सिंह नें अपने बड़े भाइयों, किशन सिंह और अजीत सिंह से प्रेरणा लेकर उनके पद चिह्नों पर चलना शुरु कर दिया. किशन सिंह और अजीत सिंह लाला लाजपत राय और सूफी अंबा प्रसाद जैसे आज़ादी के दीवानों के बेहद क़रीब थे.

लाहौर में स्वर्ण सिंह अजीत सिंह की गतिविधियों में उनका साथ दिया करते थे.

भारत माता सोसाइटी और मोहब्बत-ए-वतन जैसे अभियानों का आयोजन करके वो ग़रीब किसानों की समस्याओं को सुलझाया करते थे.

अजीत सिंह के हिंदी और उर्दू में लिखे गए साहित्यिक कार्यों को पन्नों में स्वर्ण सिंह ही उतारा करते थे.

उनपर 'बंदर बांट, डिवाइड एंड कॉन्कर, पेशवा, हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी हुकूमत, ग़दर, बाग़ी मसीह, अमानत में ख़यानत' जैसी कई किताबें-पैम्फ़्लेट छापने और बेचने का आरोप लगा था.

इन आरोपों में वो कई बार जेल गए और उन्हें टीबी हो गई.

ख़ुफ़िया सरकारी रिपोर्टों में ज़िक्र

पंजाबी युनिवर्सिटी के इतिहासकार डॉक्टर गंडा सिंह ने स्वर्ण सिंह के समय के ब्रितानी सरकार की ख़ुफ़िया रिपोर्टों को इकट्ठा करके अपनी संपादित किताब 'सेडिशियस लिटरेचर इन द पंजाब' में शामिल किया.

इन खुफिया जानकारियों में स्वर्ण सिंह की गतिविधियों और टीबी की काफ़ी गंभीर स्थिति में होने की बात स्पष्ट कही गई है.

टीबी के कारण उनके ख़िलाफ मुकदमे नहीं चले लेकिन बीमारी इतनी बढ़ चुकी थी कि ठीक से इलाज भी नहीं हो पाया और 20 जुलाई, 1910 को उनकी मृत्यु हो गई.

भगत सिंह के चाचा के रूप में पहचान क्यों?

जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी के प्रोफे़सर डॉक्टर चमन लाल ने बीबीसी से कहा, "ब्रितानी सरकार की फाइलों में सैकड़ों बार स्वर्ण सिंह का नाम और उनके ऊपर लगे आरोप सामने आते हैं. तो जब उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए इतना कुछ किया है तो देश उन्हें सिर्फ़ भगत सिंह के चाचा के रूप में ही क्यों जानता है?"

उनका कहना है, "जेल में रहकर उन्हें टीबी हुई और कम-से-कम उनके जन्म शताब्दी वर्ष में तो उन्हें पहचान मिलनी चाहिए."

भगत सिंह की भतीजी वीरेंदर संधु पूरे परिवार के बारे में किताब लिख चुकी हैं.

वीरेंदर संधु ने फ़ोन पर लंदन से बीबीसी से कहा, "स्वर्ण सिंह की पहचान भगत सिंह के चाचा के रूप में भी जितनी होनी चाहिए थी उतनी नहीं हो पाई. स्वर्ण सिंह के लिए अब कुछ किया जाना चाहिए."