फ़सल अपनी, खेत पराया, बस भरिए किराया
- विवियन फर्नांडीज़
- बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
देश की आज़ादी के बाद सरकार ने ज़मींदारी खत्म कर दी थी जिसके तहत पट्टा पर ज़मीन लेकर खेती करने वालों को उस ज़मीन का मालिकाना हक़ दे दिया गया था. लेकिन अब एक बार फिर से इसे बदलने की मांग की जा रही है.
1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के तहत पट्टा पर ज़मीन लेकर खेती करने वालों का ज़मीन पर मालिकाना हक़ हो गया था.
अब नीति आयोग की एक समिति ने एक क़ानून ड्राफ्ट किया है जिसके तहत जिन्होंने खेती के लिए ज़मीन पट्टे पर लिए हैं उनका मालिकाना हक़ नहीं होगा.
काश्तकारी क़ानून के तहत ज़मीन पर खेती करने वाले का हक़ होता है. इससे पट्टा पर ज़मीन देने के औपचारिक चलन पर तो धक्का लगा लेकिन इसने अनौपचारिक रूप से ज़मीन को पट्टे पर देने की नई संभावनाओं को पैदा किया है.
जून 2011 में आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी ज़िले के दो ब्लॉक के किसानों ने राजस्व अधिकारी के सामने प्रण लिया कि वो 'क्रॉप होलीडे' मनाएंगे.
उन्होंने घोषणा कि चावल के निर्यात पर लगे प्रतिबंध के विरोध में वे एक मौसम के लिए अपनी ज़मीन, परती छोड़ देंगे. नतीजा यह हुआ कि चावल के दाम गिर गए.
रवि चंद्रा जो उस वक्त जिलाधिकारी थे, उन्होंने इस मामले को एक नया मोड़ दिया. उन्होंने कहा कि किसान इसलिए अपनी ज़मीन नहीं जोतने का फैसला ले सकते थे क्योंकि वो खुद से अपनी ज़मीन पर खेती नहीं कर रहे थे.
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उनके पास मत्सय पालन और मुर्गी पालन जैसे आय के दूसरे रास्ते भी थे. धान की खेती में मुनाफा कम हो रहा था.
बड़े पैमाने पर अनौपचारिक रूप से पट्टे पर खेती की जा रही थी.
पिछले साल बनाए गए टीवी डॉक्यूमेंट्री के दौरान पता चला कि जालंधर के मदार गांव में आलू, धान और मक्के की खेती करने वाले जगराज सिंह बंसी ने करीब 75 एकड़ ज़मीन पट्टे पर ली थी. एक एकड़ ज़मीन पट्टे पर लेने की क़ीमत तीस हज़ार थी.
जालंधर के ही पवनजोत सिंह ने 180 एकड़ ज़मीन पर आलू की खेती की थी जिसमें से अधिकांश ज़मीन परिवार के ही लोग और बाहर के लोगों से पट्टे पर ली गई थी.
अजीत सिंह मान ने बताया कि उनके पास अपनी दस एकड़ ज़मीन है और साठ एकड़ ज़मीन उन्होंने पट्टे पर ली थी.
पिछले साल अक्टूबर में सफेद कीटों ने पंजाब में कपास की खेती को बर्बाद कर दिया था.
भठिंडा में कलझारानी गांव के अवतार सिंह ने कहा कि लोग पट्टे के समझौते से मुकर रहे थे क्योंकि कपास की खेती में हुए नुकसान की वजह से वो पट्टे के तहत तय रकम को नहीं दे पा रहे थे.
उनके पास दस एकड़ अपनी ज़मीन थी और उन्होंने दस एकड़ ज़मीन चालीस हज़ार प्रति एकड़ के हिसाब से पट्टे पर ली थी.
भठिंडा के ही मेहमा सारजा गांव के किसान जगतार बरार के पास 50 एकड़ ज़मीन थी. जो उन्होंने लगभग पचास हज़ार प्रति एकड़ के हिसाब से ली थी. वो उसमें धान और सब्जी उगाते थे.
नेशनल सैंपल सर्वे के नए आकड़ों के मुताबिक़ पट्टे पर दी गई सबसे अधिक ज़मीन (34 फ़ीसदी) आंध्र प्रदेश में हैं.
इसके बाद पंजाब में 25 फ़ीसदी, बिहार में 21 फ़ीसदी, सिक्किम में 18 फ़ीसदी, ओडिशा में 17 फ़ीसदी, हरियाणा में 15 फ़ीसदी, पश्चिम बंगाल में 14 फ़ीसदी, तमिलनाडु में 14 फ़ीसदी और तेलंगाना में 14 फ़ीसदी ज़मीन पट्टे पर दी गई है.
दूसरे राज्यों में राष्ट्रीय औसत से कम ज़मीन पट्टे पर दी गई हैं.
पाबंदियों के बावजूद पट्टे पर ज़मीन देने का चलन फल-फूल रहा है. कुछ राज्यों में सिर्फ विधवाओं, अविवाहितों या तलाकशुदा औरतों, सेना के जवानों और मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग लोगों को जमीन पट्टे पर दिया जा सकता है.
कुछ राज्यों में अगर पट्टेदार कुछ निश्चित सालों तक पट्टे पर खेती कर रहा हो तो पट्टा लेने वाले को ज़मीन खरीदने का हक़ मिल जाता है. कुछ राज्यों में तो पट्टेदारी समझौते सिर्फ सरकारी मंजूरी से ही वापस किए जा सकते हैं.
पाबंदियों की वजह से ज़मीन मालिक जो किसी वजह से खेती नहीं कर सकते हैं, अपनी ज़मीन को परती छोड़ने पर मजबूर है जो कि संपत्ति का बेजा इस्तेमाल है और इससे खेती से मिलने वाले राष्ट्रीय उत्पाद में कमी आती है.
अनौपचारिक रूप से पट्टा लिए हुए ज़मीन पर समय सीमा को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है. हर साल पट्टे के समझौते का नवीकरण किया जाता है.
इससे वो इस बात का भी सबूत नहीं पेश कर सकते हैं कि वो ज़मीन पर लंबे समय से खेती कर रहे हैं और उनके मालिकाना हक़ का दावा भी नहीं बन पाएगा.
इससे वो ज़मीन में पैसा डालने से बचते हैं. ऐसे पट्टेदारों को फसल पर लोन भी नहीं मिल सकता है.
अक्सर खेती नहीं करने वाले ज़मीन मालिकों को सस्ते दर पर खेती के लिए लोन मिल जाता है और वो इस पैसे को ऊंचे दर पर ब्याज पर चढ़ा देते हैं.
आज़ादी के बाद ज़मींदारी खत्म करने का कदम एक समझदारी भरा फैसला था. यह बराबरी और क्षमता को बढ़ाने के मकसद से किया गया था. लेकिन समय के साथ नई पीढ़ी में जमीन बंटावारे की वजह से ज़मीन की जोत छोटी होती चली गई.
पांच में से चार किसान पांच एकड़ से कम जोत वाले हैं. ऐसे किसानों की ज़मीन देश में कुल खेती की ज़मीन का आधा है.
नीति आयोग का कहना है कि ज़मीन को पट्टा पर देना आर्थिक गतिविधि है. यह सामंतवाद का प्रतीक नहीं है. सभी बड़े जागीरदार और ज़मींदार खत्म हो चुके हैं.
पंचायती राज की वजह से ग्रामीण भारत राजनीतिक तौर पर सशक्त हुआ है. औपचारिक रूप से जो पट्टेदार हैं उनका शोषण नहीं होगा. उन्हें आपस में फैसला करना चाहिए कि वो एक तयशुदा समय के लिए ज़मीन के मालिक और पट्टेदार हो.
लेकिन पट्टेदारी वंश के अनुसार नहीं चलेगी और ना ही वो मालिकाना हक़ पाएंगे. पट्टे पर दिए जाने वाले ज़मीन का सक्रिय इस्तेमाल गांव की गरीबी दूर करेगा.
देश के जीडीपी में 14 फ़ीसदी हिस्सा कृषि का है. इसमें देश के कुल श्रम बल का 46 फ़ीसदी लगा हुआ है.
अधिक से अधिक लोगों को खेती के बजाए दूसरे कामों में आना चाहिए. केवल तभी ग्रामीण भारत समृद्ध हो पाएगा. और ऐसा तभी हो सकता है जब ज़मीन मालिक मालिकाना हक़ खोने के डर के बिना अपनी ज़मीन को किसी इंसान, को-ऑपरेटीव या कंपनी को दे सके.
(विवियन फर्नांडीज़ www.smartindianagriculture.in के संपादक हैं.)
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