यादव कुश्ती, श्रीवास्तव शतरंज, राजपूत तलवारबाज़ी
- मधुकर उपाध्याय
- वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
पिछले हफ़्ते महाराष्ट्र की सीमा से सटे कर्नाटक के बेलगाम ज़िले में अखिल भारतीय खुली ब्राह्मण बैडमिंटन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया.
हालांकि घोषित तौर पर प्रतियोगिता ‘अखिल भारतीय’ और ‘खुली’ थी, लेकिन इसमें केवल दैवज्ञ ब्राह्मण हिस्सा ले सकते थे.
ब्राह्मणों की यह उपजाति मुख्यतः कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा में होती है. प्रतियोगिता के लिए ईनामी राशि रखी गई थी और उसमें भाग लेने की फ़ीस भी थी.
प्रतियोगिता को लेकर तमाम तरह के सवाल उठाए गए. पूछा गया कि जब यह समाज के केवल एक वर्ग के लिए है, इसे खुला कैसे कहा जा सकता है? या इसे अखिल भारतीय किस आधार पर कहा जा रहा है?
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आयोजकों का कहना था कि यह प्रतियोगिता ‘खुली’ इस अर्थ में है कि इसमें हर आयु वर्ग की महिला और पुरुष खिलाड़ी भाग ले सकते हैं. दरअसल यह सारे ब्राह्मणों के लिए भी नहीं थी. लेकिन आयोजकों ने कहा कि वे अगले साल इस पर विचार कर सकते हैं क्योंकि उन्हें इस तरह के अनुरोध दूसरे राज्यों से भी मिले हैं.
दैवज्ञ फाउंडेशन का कहना था कि प्रतियोगिता का उद्देश्य दैवज्ञ ब्राह्मणों में बैडमिंटन की छिपी प्रतिभाओं की पहचान करना है. फाउंडेशन के एक अधिकारी और प्रतियोगिता के प्रभारी के श्रीनिवास ने कहा, "हमने दूसरे समुदायों को रोका नहीं है. वे चाहें तो अपने लिए अलग से आयोजन कर सकते हैं."
कभी अपने समाज के प्रोत्साहन के नाम पर तो कभी बेहतर संयोजन और बृहत्तर समाज में अपनी अलग पहचान के लिए ऐसी छोटी विभाजक लकीरें बार-बार खींची जाती रही हैं, जिनका किसी सभ्य और विकसित समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता.
ऐसा धर्म, वर्ण, जाति, आर्थिक स्थिति और भौगोलिक क्षेत्र के नाम पर होता रहा है पर खेल के क्षेत्र में यह शायद पहली बार हुआ है.
विभाजन
सौ साल पहले महात्मा गांधी ने असंख्य विभाजन रेखाओं वाले समाज की एक तस्वीर 1915 में हरिद्वार कुंभ यात्रा के समय सहारनपुर रेलवे स्टेशन पर देखी थी.
ट्रेन के हिंदू यात्री गला सूखने पर भी ‘मुसलमान पानी’ पीने को तैयार नहीं थे. ‘हिंदू पानी’ की प्रतीक्षा करते थे.
धर्म के नाम पर विभाजन की वह लकीर मोटी थी, जो दक्षिण अफ्रीका में मुख्य भूमि से दूरी के कारण समस्या नहीं थी. लेकिन गांधी को अहसास था कि भारत में इसे मिटाकर सबको एक करना बड़ी चुनौती होगी.
वर्णों के बीच दूरियां और जातियों-उपजातियों के बीच असहजता की जड़ें धार्मिक विभेद से कम गहरी नहीं थीं.
खेल और राजनीति
आभासी मीडिया में इस प्रतियोगिता पर काफ़ी टीका-टिप्पणियां हुईं. यहां तक कहा गया कि इसके पीछे राजनीति है. इसके कुछ आयोजक भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए हैं. फ़िलहाल आयोजक इससे विचलित नहीं थे.
सोशल मीडिया पर यह सवाल भी उठाया गया कि समाज को जाति और उपजाति के नाम पर इस तरह विभाजित करने को उचित कैसे ठहराया जा सकता है? कुछ को उसमें प्रतिस्पर्धा से अधिक दीगर तत्व, ख़ासकर राजनीति दिखाई देती थी.
यह भी पूछा गया कि खेलों को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने पर रोक क्यों नहीं होनी चाहिए?
राज्य में इस खेल की प्रमुख संस्था कर्नाटक बैडमिंटन एसोसिएशन ने इस मामले में हस्तक्षेप करने और प्रतियोगिता रोकने की ज़रुरत नहीं समझी. उनका कहना था कि इसमें कुछ भी आपतिजनक नहीं है पर एसोसिएशन इस प्रतियोगिता को मान्यता नहीं देता.
आलोचना
समाजशास्त्रियों का कहना है कि भारत जैसे वैविध्य वाले समाज में छोटी विभाजक रेखाओं की समस्या बहुत पुरानी और विकट है.
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर आनंद कुमार ने ब्राह्मण बैडमिंटन को ‘शर्मनाक’ करार दिया.
उन्होंने कहा, ‘इस तरह तो खेलों को जाति-विशेष से जोड़ दिया जाएगा. राजपूत तलवारबाज़ी, यादव कुश्ती और श्रीवास्तव शतरंज की अखिल भारतीय प्रतियोगिताएं होने लगेंगी.’
आनंद कुमार का कहना था कि राजनीतिज्ञों को ‘कम से कम खेल, संगीत और शिक्षा के क्षेत्रों को बख्श देना चाहिए. वोट बैंक की तलाश में इतना शीर्षासन करने की ज़रुरत नहीं है.’
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