सालिहां वो तुम्हें याद नहीं रखेंगे!

  • पी साईनाथ
  • वरिष्ठ पत्रकार
सालिहां

इमेज स्रोत, P SAINATH

सालिहां गांव पर जब हमला हुआ तो एक लड़का सूचना लेकर दौड़ता हुआ आया. उस समय वो अन्य आदिवासी महिलाओं के साथ खेत में काम कर रही थीं.

उसने कहा, “उन्होंने गांव पर हमला बोल दिया है, उन्होंने तुम्हारे पिता को भी मारा है. वो हमारे घरों को जला रहे हैं.”

ये बात 1930 के आसपास की है और हमला करने वाले ब्रितानी पुलिस के लोग थे, जो अंग्रेज़ी राज से विद्रोह करने वाले इस गांव पर कार्रवाई कर रहे थे.

कई अन्य गांवों को तबाह कर दिया गया या जला दिया गया, लोगों के अनाज लूट लिए गए, विद्रोहियों को सबक सिखाया गया था.

साबर समुदाय की आदिवासी महिला देमाथी देई साबर और 40 अन्य अदिवासी युवा महिलाएं खेत का काम छोड़ गांव सालिहां की ओर दौड़ीं.

पढ़ें विस्तार से

भारत में अंग्रेज़ी राज

इमेज स्रोत, Getty

बुज़ुर्ग स्वतंत्रता सेनानी देमाथी ने बताया, “मेरे पिता ख़ून से लथपथ ज़मीन पर पड़े हुए थे. उनके पैर में गोली लगी थी.”

उनके मुताबिक़, “मैं आपा खो चुकी थी और मैं बंदूकधारी अफ़सर से भिड़ गई. उन दिनों खेत या जंगल में जाते हुए हम लाठी साथ रखते थे. अगर जंगली जानवर हमला कर दें तो उससे बचने के लिए साथ में कुछ तो रखना ही पड़ता था.”

जब उन्होंने अफ़सर पर हमला बोला तो, बाकी 40 महिलाओं की लाठी भी पुलिसवालों के ख़िलाफ़ उठ गई.

उन्होंने आवेश में बताया, “मैंने सड़क तक उस बदमाश का पीछा किया. वो इतना हैरान था कि कुछ भी नहीं कर पाया. वो भागता ही चला गया.”

उन्होंने उसे पूरे गांव में दौड़ा दौड़ा कर पीटा. इसके बाद उन्होंने अपने पिता को उठाया और उस जगह से दूर ले गईं. बाद में वो गिरफ़्तार कर लिए गए थे, हालांकि एक दूसरे आंदोलन की अगुवाई करने के लिए.

इस इलाक़े में अंग्रेज़ी राज विरोधी आंदोलन को संगठित करने में कार्तिक साबर की मुख्य भूमिका थी.

देमाथी देई साबर ‘सालिहां’ के नाम से भी जानी जाती हैं. यह नाम नौपाडा ज़िले में स्थित उनके गांव के नाम पर है.

ओडिशा की इस स्वतंत्रता सेनानी को हथियारबंद ब्रितानी अधिकारी के ख़िलाफ़ लाठी से मुक़ाबला करने के लिए सम्मानित किया गया था.

सालिहां विद्रोह

सालिहां

इमेज स्रोत, Other

उनकी निडरता की तमाम कहानियों के बावजूद वो ख़ुद नहीं मानतीं कि उन्होंने कुछ भी अनोखा किया था.

उन्होंने बताया, “उन्होंने हमारे घर और फसलें तबाह कर दिए थे और उन्होंने मेरे पिता को घायल कर दिया था. ऐसी स्थिति में मुझे उनसे लड़ना ही था.”

वो साल था 1930 का और वो उस समय 16 साल की थीं. विद्रोही इलाक़ों में ब्रिटिश राज विरोधी और आज़ादी के समर्थन में होने वाली बैठकों पर अंग्रेज़ सरकार सख़्त कार्रवाई कर रही थी.

ब्रितानी और उनकी पुलिस के ख़िलाफ़ देमाथी की इस कार्रवाई को बाद में सालिहां विद्रोह और फ़ायरिंग के नाम से जाना गया.

देमाथी से जब मैं मिला था वो 90 साल की होने वाली थीं. उनके चेहरे पर तब भी एक आत्मविश्वास और सुंदरता थी.

वो बहुत कमज़ोर हो चुकी थीं और उनकी आंख की रोशनी तेज़ी से ख़त्म हो रही थी, लेकिन अपनी युवावस्था में शायद वो बहुत सुंदर, लंबी और मज़बूत रही होंगी. उनके लंबे हाथ, उनमें छिपी ताक़त और लाठी चलाने में सक्षम होने का संकेत देते थे.

उस अंग्रेज़ अफ़सर पर ये ज़रूर भारी पड़ी होंगी और निश्चय ही उसने भागने में भलाई समझी होगी.

सरकारी उपेक्षा

भारत का झंडा

इमेज स्रोत, Reuters

छोड़कर पॉडकास्ट आगे बढ़ें
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर (Dinbhar)

वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.

दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर

समाप्त

उनका यह असाधारण साहस उपेक्षित है और उनके गांव के बाहर तो उनके बारे में लोग लगभग भूल ही चुके हैं.

जब मैं ‘सालिहां’ से मिला तो वो बारगढ़ ज़िले में बहुत ग़रीबी में रह रही थीं. उनके पास संपत्ति के नाम पर केवल एक रंग बिरंगा सरकारी कागज़ था जो उनकी बहादुरी की तस्दीक करता था.

उसमें भी ‘सालिहां’ से ज़्यादा उनके पिता के बारे में लिखा है और उसमें उस जवाबी कार्रवाई का ज़िक्र तक नहीं है, जिसकी उन्होंने अगुवाई की थी. उन्हें पेंशन नहीं मिलती थी और न ही सरकार की ओर से और कोई मदद.

वो अपनी याददाश्त खो रही थीं. केवल एक बात उनकी आंखों में चमक पैदा करती और वो थी उनके पिता कार्तिक साबर को गोली लगने की घटना.

आप इस बारे में उनसे बात करें तो वो बहुत ग़ुस्से में उस घटना को याद करती हैं और लगता है जैसे वो अभी यहीं उनकी आंखों के सामने घटित हो रही हो.

उन्होंने बताया, “मेरी बड़ी बहन भान देई और साबर समुदाय की दो अन्य आदिवासी महिलाएं- गंगा तालेन और साखा तोरेन को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था. वो सभी अब इस दुनिया में नहीं हैं. पिता ने रायपुर जेल में दो साल गुज़ारे.”

आज़ादी की लड़ाई

महात्मा गांधी

इमेज स्रोत, gandhismriti.gov.in

आज उनके इलाक़े में उन्हीं सामंती लोगों का बोलबाला है, जिन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया था. जिस आज़ादी के लिए सालिहां लड़ीं, उससे इन सामंती लोगों को ही फ़ायदा हुआ. यहां ग़रीबी के समंदर में सम्पन्नता के टापू दिखाई देते हैं.

वो हमें देख मुस्कराईं लेकिन वो थक रही थीं. अपने तीन बेटों- ब्रिश्नु भोई, अंकुर भोई और आकुरा भोई का नाम याद करने में भी उन्हें दिमाग पर ज़ोर देना पड़ता है.

जब हम जाने को तैयार हुए तो उन्होंने हमारी ओर हाथ हिलाया.

देमाथी देई साबर ‘सालिहां’ फिर भी मुस्करा रही हैं.

(सालिहां से साल 2002 में हम मिले थे और इसके एक साल बाद ही उनकी मौत हो गई.)

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)