'जिस दबंग ने पत्थर फेंके उसी के घर शौच के लिए जाना पड़ा'

  • जया निगम
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थानों तक महिलाओं की पहुंच सुनिश्चित करने के मक़सद से उत्तर प्रदेश के हर ज़िले में 'ऑल वुमन पुलिस स्टेशन' की योजना बनाई गई थी.

लेकिन ये सवाल भी उठते रहे हैं कि क्या दूसरी महिलाओं की सुरक्षा का ज़िम्मा जिन महिला पुलिसकर्मियों के कंधों पर हैं, वो खुद अपने काम में कितना सहज और सुरक्षित महसूस करती हैं?

उत्तर प्रदेश में बरेली के चौकी चौराहे और लखनऊ के हज़रतगंज स्थित महिला थाने में जाकर मुझे इन सवालों के जवाब मिलते दिखे. दोनों ही थानों में महिलाओं के अलावा 6-7 पुरुष पुलिसकर्मी भी तैनात थे.

लखनऊ के महिला थाने में मुन्नीदेवी नाम की कांस्टेबल, हेड कांस्टेबल उमा शर्मा से बहस कर रही थीं कि उनके दो-ढाई साल के बच्चे के होते हुए (जो वहां सामने ही खेल रहा था) भी क्यों उनकी ड्यूटी, दूर के गांव में लगा दी गई.

महिला कांस्टेबल की समस्या

उत्तर प्रदेश का रामगंज महिला पुलिस थाना

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एसएचओ गीता द्विवेदी बताती हैं, "अभी 2011 बैच आने के बाद यहां स्टाफ की समस्या खत्म हुई है. बच्चेवाली महिला पुलिसकर्मियों की समस्या सबसे बड़ी है. हमारी ड्यूटी रात-दिन की होती है. ऐसे में रात के वक्त गाड़ी उपलब्ध न होने से हमारे लिए ड्यूटी करना नामुमकिन हो जाता है."

इतना ही नहीं दूर दराज के इलाक़ों में महिला पुलिसकर्मियों को शौचालय तक की समस्याओं से निपटना पड़ता है.

हेड कांस्टेबल उमा शर्मा अपनी आपबीती बताती हैं, "एक बार, रात में गांव के उन्ही दबंग लोगों के घर टॉयलेट जाने की विनती करनी पड़ी जिन्होंने सुबह मुझे पत्थर मारे थे."

उत्तर प्रदेश में महिला थानों के कुछ चक्कर काटते हुए यह एहसास बार-बार हुआ कि भले ही बाहर वाले खाकी वर्दी पहनी औरतों को सशक्त महिलाओं के रूप में देखते हैं, लेकिन हक़ीकत में महिला पुलिसकर्मियों को भी एक आम महिला की तरह तमाम जद्दोजहद से होकर गुजरना पड़ता है.

महिलाओं के खिलाफ़ अपराध को अगर आँकड़ों की नज़र से देखें तो उत्तर प्रदेश उन राज्यों में हैं जहाँ बलात्कार के सबसे ज़्यादा मामले दर्ज हुए हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, 2014 की रिपोर्ट बताती है कि थानों में महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार के मामलों में भी उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है. पूरे देश में जहाँ ऐसे 196 मामले थे जिनमें से यूपी में ये संख्या 189 थी.

राज्य में कुल क़रीब साढ़े नौ करोड़ (9,53,31831) महिलाओं के लिए 71 महिला थाने हैं.

घरेलू हिंसा

महिला कांस्टेबल अपनी ड्यूटी पर

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थानों की बात करें तो महिला पुलिसकर्मियों को लेकर एक और दिक्कत भी सामने आई जब मैं बरेली थाने के बाहर ज्ञानदेई से मिली. ज्ञानदेई बरेली के खाली पड़े महिला थाने से एक कागज लेकर बाहर निकलती हैं.

मामला पूछने पर वह बताती हैं, “ससुराल वाले लड़की के साथ अक्सर मार-पीट करते हैं. पिछले साल उसका पैर तोड़ दिए तब हम थाने में शिकायत किए. उन लोगों ने यहां भेज दिया. यहां इन सभी ने हमको समझा कर लड़की को वापस ससुराल भेज दिया. ससुराल वाले अभी भी लड़की को बहुत परेशान कर रहे हैं.”

उनके निकलते ही महिला थाना परिसर फिर सुनसान हो जाता है और 60-70 महिला-पुरुष पुलिसकर्मियों का स्टाफ दोबारा सेंट और साड़ी बेचने आए फेरीवालों के साथ व्यस्त हो जाते हैं.

बरेली के महिला थाने में 80-85 फीसदी मामले घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत दर्ज हैं, जिनमें समझौते की प्रक्रिया जारी है. कमोबेश यही स्थिति लखनऊ के हजरतगंज स्थित महिला थाने की भी है.

प्रदेश में महिलाओं के ख़िलाफ़ संगीन अपराधों की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन इन महिला थानों में गंभीर अपराध न के बराबर दर्ज हैं.

'बलात्कार के मामले यहाँ रेफ़र नहीं होते'

महिला पुलिस अफ़सर

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लखनऊ के महिला थाने की एसएचओ गीता द्विवेदी बताती हैं, "यहां हम ज़्यादातर सुलह-समझौते का काम करते हैं. घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों के लिए पूरे लखनऊ में यही एक थाना है."

वे कहती हैं, "बलात्कार जैसे दूसरे मामले अन्य थानों से यहां रेफर नहीं होते. दरअसल ‘संगीन मामले’ उच्च पुलिस अधिकारी सुलझाते हैं जो दूसरे थानों में मौजूद होते हैं, इसलिए ये मामले हमारे पास नहीं भेजे जाते."

लखनऊ में ‘आली’ महिला संगठन की अवंतिका और शिवांगी का मानना है कि बहुत सारी महिला पुलिसकर्मियों को घरेलू हिंसा अधिनियम (डीवी एक्ट), 2005 की जानकारी ठीक से नहीं है.

वो कहती हैं, "एक्ट के सिविल क्लॉज के तहत पुलिसकर्मियों को महिला को ‘प्रोटेक्शन’ उपलब्ध करानी होती है न कि उसे समझौते के लिए तैयार करना होता है. एफ़आईआर दर्ज करने से बचने के लिेए महिला थाने वादी महिलाओं को अभियुक्तों के साथ समझौते के लिए तैयार करते हैं."

पूर्वी उत्तर प्रदेश में सक्रिय वादा फाउंडेशन के कार्यकर्ता अमित मिश्रा एक और बात की ओर ध्यान खींचते हैं.

उनका कहना है कि गांवों और छोटे कस्बों में अक्सर महिला थाने 2-3 पुलिसकर्मियों के भरोसे चलते हैं, जिनके पास न वाहन होते हैं और न ही अन्य साधन.

ऐसे में महिला थानों और महिला पुलिसकर्मियों की कार्यक्षमता कहीं न कहीं सवालों के घेरे में आती है.

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