बिहार: हाशिए पर क्यों गए दलित नेता?

  • सुरूर अहमद
  • वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

बिहार के दलित नेता हाल के सालों में कभी उतने हाशिए पर नहीं थे, जितने मौजूदा समय में पहुंच गए हैं.

बिहार चुनाव के नतीजों के बाद लोकजनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी राजनीतिक सौदेबाज़ी की स्थिति में नहीं रहे हैं.

इनके अलावा बीते मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री रहे रमई राम, श्याम रजक और विधानसभा के पूर्व स्पीकर उदय नारायण चौधरी जैसे वरिष्ठ दलित नेताओं को भी अपना पद गंवाना पड़ा है.

इनमें रमई राम और श्याम रजक तो लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की कैबिनेट के अहम सदस्य थे.

रमई राम और उदय नारायण चौधरी चुनाव हार गए, इसलिए उन्हें जगह नहीं मिली जबकि जीत दर्ज करने के बाद भी श्याम रजक को मंत्रिमंडल से बाहर रखने का फ़ैसला चौंकाने वाला है.

मगर पासवान और मांझी की पार्टियों का प्रदर्शन सर्वाधिक चौंकाने वाला रहा. पासवान दुसाध जाति से हैं जबकि मांझी दलितों में सबसे पिछड़े मुसहर जाति से हैं.

ये दोनों जातियां बिहार में आबादी के हिसाब से काफ़ी अहम हैं.

दुसाध और मुसहर मिलकर बिहार की 15.72 फ़ीसदी दलितों की आबादी में क़रीब आधे हैं, इसलिए भाजपा इन्हें अहम मान रही थी.

यह दूसरी बात है कि पासवान और मांझी ने बिहार में सबसे बड़े दलित नेता के बतौर उभरने की होड़ में एक दूसरे का असर ख़त्म कर दिया.

लोकजनशक्ति पार्टी बिहार में 42 सीटों पर चुनावी मैदान में उतरी और महज दो सीटें जीत सकी जबकि हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा ने 21 जगहों पर उम्मीदवार उतारे और उसे महज़ एक सीट पर जीत मिली.

हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा की ओर से केवल जीतन राम मांझी चुनाव जीत पाए. दो सीटों पर लड़े थे. एक जगह से हार गए. इमामगंज से उन्होंने एक अन्य वरिष्ठ दलित नेता उदय नारायण चौधरी को हराया.

पासवान और मांझी से उलट रमई राम, उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक जिन जातियों से हैं, वे बिहार में बहुत प्रभावी स्थिति में नहीं है.

रमई राम रविदास समुदाय से आते हैं. इस समुदाय की बिहार में ख़ासी आबादी है लेकिन उत्तर प्रदेश की तुलना में कम है. उत्तर प्रदेश में रविदास 21.15 दलित आबादी में क़रीब दोतिहाई हैं.

उदय नारायण चौधरी पासी (ताड़ी बेचने वाले) समुदाय से हैं जबकि श्याम रजक धोबी समुदाय से हैं.

इन दोनों की बिहार में बहुत ज़्यादा आबादी नहीं है. इस वजह से दोनों बिहार में दलितों के सबसे बड़े नेता के तौर पर नहीं उभर सकते.

मांझी 20 मई, 2014 से पहले तक कभी दलितों के नेता नहीं रहे. इसी दिन नीतीश कुमार ने इस्तीफ़ा देकर मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था. नीतीश ने मांझी को मुख्यमंत्री का पद दिया और इस पद ने मांझी को दलित नेता के तौर पर आवाज़ भी दी.

लेकिन मांझी ने अपनी आवाज़ का इस्तेमाल ग़रीबों के लिए कम और खुद की राजनीतिक महत्वाकांक्षा दर्शाने में ज़्यादा किया.

वह कूदकर भाजपा के रथ पर सवार हो गए. उन्होंने सोचा कि नीतीश का युग अब बीत चुका है. उनका आकलन ग़लत बैठा और उनको सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा.

पासवान भारत के सबसे बुज़ुर्ग दलित नेताओं में हैं. वह चुनावी राजनीति में 1969 में आए थे. 1977 में उन्होंने लोकसभा चुनाव में सबसे ज़्यादा मतों से जीत हासिल करने का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया था.

1986 में जगजीवन राम की मृत्यु के बाद वह उत्तर भारत में दलितों के सबसे बड़े नेता थे. कांशीराम और मायावती तो पासवान की तुलना में 15 साल बाद राजनीति में आए.

बावजूद इसके पासवान अब अपने राज्य में भी दलितों के नेता नहीं रहे. उनकी पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव में 6.4 फ़ीसदी मत मिले थे, जो इस चुनाव में गिरकर 4.8 फ़ीसदी रह गए हैं.

मांझी की पार्टी को केवल 2.3 फ़ीसदी मत मिले.

मुलायम सिंह यादव नौ फ़ीसदी यादव मतों के साथ और लालू प्रसाद यादव 14 फ़ीसदी यादव मतों के साथ उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़े नेता के तौर पर उभरते रहे हैं जबकि पासवान बिहार में 15.72 फ़ीसदी दलित मतदाताओं की मौजूदगी के बाद भी वैसा करिश्मा नहीं दोहरा पाए हैं.

यह सही है कि उत्तर प्रदेश में बिहार की तुलना में दलितों की संख्या ज़्यादा है.

लेकिन कोई इससे इनकार नहीं कर सकता कि कांशीराम और मायावती पंजाब और दिल्ली के थे और उन्होंने काफ़ी बाद में उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रवेश किया. उत्तर प्रदेश में आने के एक दशक के भीतर वे मज़बूत राजनीतिक ताक़त बनकर उभरे.

बसपा अपने सबसे ख़राब प्रदर्शन के दौर में जब 2014 में उसे कोई लोकसभा सीट नहीं मिली, तब भी 19.82 फ़ीसदी मत ले गई. ऐसे में 10 फ़ीसदी वोट बढ़ने पर मायावती एक बार फिर से ज़ोरदार वापसी कर सकती हैं.

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