प्रोफ़ेसर का 'पार्टनर' अलीगढ़ का वो रिक्शेवाला

  • विनीत खरे
  • बीबीसी संवाददाता, अलीगढ़

“हमने होमो सेक्स करते हुए शूट किया. नग्न अवस्था में पाए गए हैं. नंगे थे, बिल्कुल नंगे,” अब्दुल (बदला हुआ नाम) को याद है कि कैसे पत्रकार फ़ोन पर किसी को यह बता रहे थे.

पत्रकारों की बातें सुन रिक्शाचालक अब्दुल के पैर डर के मारे थर-थर कांपने लगे.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आठ फ़रवरी 2010 को प्रोफ़सर रामचंद्र सीरास का कमरा था वह. वहाँ अब्दुल के साथ जो कुछ हुआ, उसकी हर याद अब्दुल के ज़ेहन में आईने की तरह साफ़ है.

कैसे वहाँ हुए ‘स्टिंग ऑपरेशन’ ने उन दोनों के जीवन को तार-तार कर दिया. शर्म, सार्वजनिक निंदा, तीखे कटाक्ष की बाढ़ के बीच प्रोफ़ेसर की कुछ ही महीनों बाद रहस्यमय स्थितियों में मौत हो गई.

प्रोफेसर रामचंद्र सीरास की मौत के छह साल बीत चुके हैं. अब्दुल उनके बिना अपने जीवन में एक खालीपन महसूस करते हैं.

सीरास को याद करते हुए वे कहते हैं, "चिड़िया, तोता, कबूतर भी पालो और साल-दो साल में वो एकदम से उड़ जाए तो इसका अहसास होता है. जब किसी के साथ इतना समय बिताया हो, वो अचानक चला जाए तो खाली-खाली सा लगता है."

अब्दुल आज भी डर के साए में गुमनाम ज़िंदगी बिता रहे हैं. डर, कि कहीं कोई पहचान न ले, कहीं पांच बेटियों के लिए दिन के 200 रुपए जुटाना भी मुहाल न हो जाए.

वह शाम का वक़्त था, जब प्रोफ़ेसर और रिक्शेवाला कमरे में ‘एन्जॉय’ कर रहे थे. तभी तीन लड़के हाथों में कैमरा लिए कमरे में घुसे.

“हम मीडिया से हैं. क्या हो रहा है यहां. लांग शॉट लो. लांग शॉट लो,” एक लड़के ने दबंग अंदाज़ में कहा.

“तुम रिक्शाचालक एक प्रोफ़ेसर के घर में कैसे,” पत्रकार ने तीखेपन से पूछा था.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दफ़्तर से बीबीसी को मिली सीडी के उस दिन के दृश्य किसी के भी रोंगटे खड़े कर देते हैं.

बहुत कोशिश के बाद अब्दुल मुझसे मिलने को राज़ी हुए.

सांवला ढला सा शरीर, धारीदार शर्ट और सफ़ेद पैंट, पेट निकला हुआ, बढ़ी दाढ़ी और हाथ में सस्ता सा मोबाइल. अब्दुल को उम्मीद थी कि प्रोफ़ेसर का प्रेम, उनके साथ शादी उन्हें जीवन की नई ऊंचाई पर ले जाएगा, लेकिन उनकी मौत ने उनके सारे सपने ढेर कर दिए.

प्रोफ़ेसर श्रीनिवास सीरास अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मराठी पढ़ाते थे. उनके जीवन के कुछ पलों पर हंसल मेहता की फ़िल्म अलीगढ़ 26 फ़रवरी को रिलीज़ हो रही है.

अब्दुल प्रोफ़ेसर सीरास से मुहब्बत का दावा तो करते हैं, लेकिन मानते हैं कि उनमें “थोड़ा लालच” भी था. वह चाहते हैं कि प्रोफ़ेसर सीरास का पार्टनर होने के नाते उन्हें उनकी पेंशन और प्रॉपर्टी का हिस्सा मिले, हालांकि इसका क़ानूनी आधार नहीं है.

1981 में दिल्ली में शाहदरा की जनता कॉलोनी में जन्मे अब्दुल 1992 दंगों के बाद अलीगढ़ आ गए. पिता मज़दूर थे. परिवार में दो बहनों और एक भाई का बोझ था इसलिए मुश्किल से ही घर का ख़र्च चलता था. 14 साल की उम्र में ही उन्होंने रिक्शा चलाना शुरू किया.

अब्दुल विश्वविद्यालय की आर्ट्स फ़ैकल्टी के बाहर रिक्शा चलाते थे.

2009 में एक दिन अब्दुल की मुलाक़ात मराठी के प्रोफ़ेसर श्रीनिवास रामचंद्र सीरास से हुई. प्रोफ़ेसर सीरास पत्नी से अलग अकेले रहते थे. आसपास के लोगों से उनकी बातचीत न के बराबर थी. आर्ट्स फैकल्टी से मात्र 10 मिनट की दूरी पर मेडिकल कॉलोनी में उनका घर था.

जब उन्होंने प्रोफ़ेसर को घर के बाहर छोड़ा तो उसे पैसे लेने के लिए प्रोफ़ेसर सीरास ने उन्हें घर के भीतर बुलाया, जहां दोनो ने यौन संबंध बनाए.

करीब दो हफ़्ते बाद आर्ट्स फ़ैकल्टी के नज़दीक दोनों फिर मिले.

अब्दुल का दावा है कि प्रोफ़ेसर सीरास ने उन्हें यौन संबंध बरक़रार रखने को कहा.

अब्दुल कहते हैं, “(उन्होंने कहा मैं) तुम्हारी बहन की शादी कराऊंगा. तुम्हारे लिए मैं एक घर दिलाऊंगा. उन्होंने मुझे बताया कि मेरा रिटायरमेंट कुछ दिनों में है. मैंने कहा ठीक है. हां (मुझे) मानना पड़ा. मुझे भी उनसे लगाव सा हो गया था.”

अब्दुल बताते हैं कि “थोड़े लालच” के बावजूद उन्हें यह अनुभव अच्छा लगने लगा. यहां यह समझना ज़रूरी है कि इस संबंध में जहां प्रोफ़ेसर सीरास अपने पद, समाज में स्थान के कारण प्रभावशाली स्थिति में थे, इस संबंध से फ़ायदा अब्दुल को ज़्यादा था.

अब्दुल शादीशुदा थे. 2009 में जब वह सीरास से मिले तो उनकी तीन लड़कियां थीं. उनका यह कहना कि इससे पहले उन्होंने सिर्फ़ अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाए थे और प्रोफ़ेसर सीरास के साथ इस अनुभव ने उन्हें अपनी यौन अवस्था के अलग पक्ष के बारे में सोचने पर मजबूर किया, कई सवाल उठाता है.

क्या यह संभव है कि 29 साल तक किसी व्यक्ति को अपने समलैंगिक होने के बारे में पता न चले?

प्रोफ़ेसर सीरास की मदद करने वाली नाज़ फ़ाउंडेशन से जुड़ी अंजली गोपालन के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता.

भारतीय समाज में जहां समलैंगिकों को इज़्ज़त से नहीं देखा जाता, कई मर्द ऐसे संबंधों को गुप्त रखते हैं.

अंजली कहती हैं, “अब्दुल का समलैंगिकता की ओर झुकाव होगा. क्या ऐसा हो सकता है कि आप स्ट्रेट हों और एक दिन के अनुभव के बाद आपका झुकाव समलैंगिकता की ओर हो जाए? शादीशुदा मर्दों का दूसरे मर्दों के साथ रिश्ते होना नई बात नहीं है.”

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अंजली कहती हैं कि अब्दुल की सभी बातों पर यक़ीन करना ग़लत है और वह खुद “दूध के धुले नहीं थे.”

अब्दुल बताते हैं कि प्रोफ़सर सीरास उन्हें दोपहर को पानी पीने या पैसे देने के बहाने घर के भीतर बुला लिया करते थे.

अब्दुल का यह भी दावा है कि न उन्होंने कभी प्रोफ़ेसर से पैसा मांगा, न प्रोफ़ेसर सीरास ने उन्हें पैसा दिया. हालांकि विश्वविद्यालय प्रशासन इसे ‘पेड सेक्स’ का मामला बताता है.

और एक दिन फ़रवरी 2010 को तीन पत्रकारों ने हाथों में कैमरा लिए उनके जीवन और कमरे में प्रवेश किया.

वीडियो में दिख रहा है कि पत्रकारों ने शुरुआत में कैमरा व्यूफ़ाइंडर से सटाकर रखा था जिससे अंदर का दृश्य नज़र आ रहा था.

घटना के बाद घबराए अब्दुल घर से बाहर निकल गए. उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि प्रोफ़ेसर सीरास के साथ यह उनकी आख़िरी मुलाक़ात थी.

उस वक़्त बाहर थोड़ी बारिश हो रही थी. रिक्शा लेकर वह सीधे घर पहुँचे. घरवालों ने उनसे कारण पूछा तो उन्होंने बहाना बना दिया. कुछ दिन बाद आसपास के लोगों ने बताया कि मीडिया में उनके बारे में ख़बर छपी है.

प्रोफ़ेसर सीरास को सस्पेंड कर दिया गया. उन्हें विश्वविद्यालय कैंपस से बाहर कर दिया गया. कुछ दिन बाद उनकी मौत हो गई.

जब अब्दुल को प्रोफ़ेसर सीरास की मौत की ख़बर मिली, तो वह और डर गए कि कहीं पुलिस उन पर शक़ न करे.

पुलिस ने उन्हें कई बार पूछताछ के लिए बुलाया. पूछताछ का सिलसिला हफ़्तों चला. उन्हें पता था कि अगर कहीं डरकर भागे तो शक़ उन्हीं पर जाएगा लेकिन बार-बार पूछताछ से परेशान अब्दुल ने एक दिन घर में खुद पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा ली. बीवी ने उन पर कंबल फेंककर आग बुझाई.

वह कहते हैं, “मैंने सोचा कि इससे मर जाना बेहतर है. जब मैंने कुछ किया नहीं है. बस मेरा इतना कुसूर था कि मेरे और डॉक्टर साहब के संबंध थे.”

पिछले छह साल से जान से मार दिए जाने के अनजाने डर ने उनका पीछा नहीं छोड़ा है. उन्हें डर है कि कहीं कोई प्रोफ़ेसर सीरास की प्रॉपर्टी को लेकर उनकी हत्या न कर दे. मगर इस डर का क्या आधार है यह साफ़ नहीं.

वह कहते हैं, “मैं मर गया तो मेरी पांच बेटियां हैं, कौन पालेगा उन्हें. आपको पता है कि महिला को इस समाज में किन नज़र से देखा जाता है.”

अब्दुल मानते हैं कि क्योंकि वह प्रोफ़ेसर सीरास के पार्टनर थे, उन्हें उनकी पेंशन और प्रॉपर्टी का हिस्सा मिलना चाहिए. वह हंसल मेहता से भी आर्थिक मदद चाहते हैं. हंसल मेहता से उन्हें शिकायत है कि फ़िल्म से जुड़े किसी व्यक्ति ने उनसे अलीगढ़ में मुलाक़ात नहीं की. हालांकि फ़ोन पर उनसे बात की गई थी.

वो कहते हैं, “डॉक्टर साहब ऐसे थोड़े ही बैठते थे जैसा कि मनोज बाजपेयी बता रहे हैं. मैं उन्हें बताता कि वो (प्रोफ़ेसर सीरस) कैसे जीने पर आते-आते थक जाते थे. वह कैसे चलते थे? कैसे हम एन्जॉय करते थे, कैसे हंसते थे.”

हंसल मेहता ने बीबीसी को बताया कि फ़िल्म देखने के बाद सभी सवालों का जवाब मिल जाएगा.

अब्दुल को विश्वास है कि अगर प्रोफ़ेसर सीरास जीवित होते, तो वह किराए के मकान में न रह रहे होते. उनके बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे होते, उनके पास पैसा होता, उनका कोई कारोबार होता.

बातचीत के दौरान उन्होंने बार-बार मुझसे कहा, “इतने साल बाद आख़िर मुझे क्या मिला.”