समलैंगिकता जुड़ी तो क्या-क्या टूटेगा?
- राकेश भटनागर
- बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
आपसी रज़ामंदी से वयस्क समलैंगिकों के बीच सेक्स को अपराध नहीं मानने का मामला सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ के पास है.
इससे यह तो जाहिर है कि इस तरह के रिश्तों से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण पहलुओं को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है.
मान लिया जाए कि मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर द्वारा प्रस्तावित संवैधानिक पीठ दो न्यायाधीशों के उस फ़ैसले को पलट दे जिसमें 2013 में समलैंगिकों के ख़िलाफ़ धारा 377 के तहत कार्रवाई की अनुमति देने का फ़ैसला आया था तो स्वाभाविक तौर पर यह कहा जाएगा कि समलैंगिकों को विवाह करने और बच्चे गोद लेने की इजाज़त होनी चाहिए.
लेकिन यह मामला इतना आसान नहीं होगा, इससे कई सारे क़ानूनों को बदलने की नौबत आ जाएगी. यही वजह है कि बीते कई सालों से इस मामले को लंबित रखा जा रहा है.
ऐसे में सवाल यही है कि अगर समलैंगिंकों के बीच शादी को क़ानूनी मान्यता मिल जाए तो समाज पर क्या-क्या असर होगा.
सबसे पहले तो यही होगा कि शादी, गोद लेने, पति-पत्नी के अलग होने और भरण पोषण के लिए पैसे देने से जुड़े क़ानूनों में बदलाव करने होंगे क्योंकि यह परिवार की परिभाषा को सीमित कर देता है.
यह माना जाता है कि परिवार का मतलब यह है कि एक पुरुष का विवाह एक औरत से होता है, उन्हें पति और पत्नी कहा जाता है.
समलैंगिकों की शादी को अगर मान्यता दे भी दी जाए तो, उन्हें यह स्पष्ट करना होगा कि उनके बीच कौन पति की भूमिका में होगा और कौन पत्नी की भूमिका में.
सवाल यह है कि इस तरह के जोड़े में तलाक़ होने की स्थिति में कौन भरण पोषण की मांग करेगा और किसे इसके लिए पैसे देने होंगे.
इन रिश्तों को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि शादी की रजिस्ट्री में इन बातों का जवाब देना होगा.
शादी टूटने की हालत में अदालत के लिए सबसे महत्वपूर्ण बच्चे के हितों की रक्षा करना होता है.
कई फ़ैसलों में पिता को बच्चा सौंप दिया गया है. पर मोटे तौर पर मां को ही बच्चा रखने का हक दिया गया है.
यह माना जाता है कि बच्चे की सही देख भाल मां ही कर सकती है.
अदालत या विधायिका के लिए फ़िलहाल सबसे महत्वपूर्ण यह फ़ैसला करना है कि एक ही लिंग के दो वयस्क आपसी सहमति से क़ानूनन विवाह कर सकते हैं या नहीं. ऐसा होता है तो यह उस 'जोड़े' पर निर्भर करेगा कि वे आपस में यह तय कर लें कि कौन 'पति' की भूमिका में है और कौन 'पत्नी' की भूमिका में.
अगर वे तय करें कि इस तरह के रिश्ते उन्हें मंजूर नहीं हैं तो उन्हें मौजूदा क़ानूनों की ज़रूरतों को पूरा करना होगा.
परिवार से जुड़े कई वैसे क़ानूनों में भी संशोधन करने होंगे, जिनमें 'पत्नी' या 'माता' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसा समलैंगिक समुदाय के रिश्तों की नई सच्चाइयों के मद्देनज़र करना ज़रूरी होगा.
सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल 2014 के फ़ैसले में कहा था कि संसद या विधानसभा से मिले अधिकारों की रक्षा के लिए 'हिजड़ा' को 'ट्रांसजेंडर' माना जाए.
'ट्रांसजेंडर' के अधिकारों को मानते हुए अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा था कि वह उनके लैंगिक पहचान को नर, मादा या तीसरे लिंग के रूप में क़ानूनी मान्यता दे.
अगर अदालत आपसी सहमति से एक ही लिंग के दो वयस्कों के बीच के रिश्ते को क़ानूनी मानती है तो वह इसी तरह की बात सरकार से भी कहे, इस पर कोई रोक नहीं है. ऐसा हुआ तो समलैंगिक समुदाय को विधायिका से पारित होने वाले किसी अलग क़ानून का इंतजार नहीं करना होगा.
संविधान से जुड़े मामलों के वरिष्ठ वकील पीपी राव मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ़ यह देखेगा कि याचिका में उठाए गए विषय से क्या क़ानून का कोई ऐसा सवाल जुड़ा है, जिसके लिए संविधान की व्याख्या ज़रूरी है.
संविधान खंडपीठ को सही लगा तो वह तीन साल पहले दिए गए दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को ही उचित ठहरा सकती है.
पर क्या अदालत यह कहेगी कि आपसी सहमित से यौन संबंध बनाने वाले एक ही लिंग के दो वयस्कों पर धारा 377 लागू नहीं किया जा सकता, तो उन्हें शादी करने का हक़ है?
राव का कहना है कि अदालत सिर्फ़ यह कह सकती है कि आपसी सहमति से सबंध बनाने वाले समलैंगिकों पर धारा 377 लागू होगा या नहीं. इससे ज़्यादा कुछ नहीं.
वे आगे कहते हैं, "बाकी का काम विधायिका का है, संसद का है."
दूसरी ओर, पूर्व केंद्रीय मंत्री और मशहूर वकील कपिल सिब्बल को उम्मीद है कि फ़ैसला याचिका के पक्ष में होगा. वे सुप्रीम कोर्ट में 'क्यूरेटिव पिटीशन' यानी याचिका दायर करने वाले नाज़ फ़ाउंडेशन का प्रतिनिधित्व करते है.
नाज़ फ़ाउंडेशन का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील आनंद ग्रोवर को मुख्य न्यायाधीश ठाकुर ने कहा कि "यह हो सकता है कि नई बेंच अपने को क्यूरेटिव नियम की सीमा में सीमति न रखे."
उन्होंने कहा, "समलैंगिक समुदाय के सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए बेंच पूरे मामले के सभी पक्षों की सुनवाई कर सकती है."
कोई आश्चर्य नहीं कि इसके बाद क़ानून के विशेषज्ञ कहें कि अगर समलैंगिंकों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए रिश्ते ग़ैर क़ानूनी नहीं हैं तो समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थिति देने में भी कोई ग़ुरेज नहीं होना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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