'निर्भया' बलात्कार घटना के तीन साल कैसे गुज़रे

  • विनीत खरे
  • बीबीसी संवाददाता, दिल्ली से

'निर्भया' के परिवार का नया घर तीसरी मंज़िल पर है. पुरानी ज़िंदगी के टुकड़ों को समेटकर और जोड़कर एक नई शुरुआत की कोशिश जारी है- तीन साल पुराने घाव को भरने की कोशिश.

पुराने घर से नया घर अलग है, काफ़ी बड़ा है. लेकिन यहां शांति ज़्यादा है. हर व्यक्ति कुछ ज़्यादा ही व्यस्त है.

खटखटाने पर दरवाज़ा छोटे बेटे ने खोला. उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था. बस एक सवाल, किससे मिलना है. मां आशा देवी किचन में थीं. बेटे ने उनसे पूछा फिर दरवाज़ा खोला. पिता बद्रीनाथ अभी भी इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा के टी-3 टर्मिनल स्थित दफ़्तर में थे और घर में हमारे आने की बात बताना भूल गए थे. इसलिए थी ये हड़बड़ाहट.

ड्राइंग रूम में दो प्लास्टिक की कुर्सियां और मेज़ रखी थीं. पास में था दीवान, उस पर रखी रज़ाई. पास की दीवार पर अंधेरे की पृष्ठभूमि में दीपक से निकल रहे प्रकाश की तस्वीर कमरे में जैसे रोशनी फैला रही थी.

('निर्भया' की मां का पूरा इंटरव्यू देखने के लिए यहां क्लिक करें.)

दूसरी ओर दीवार पर शीशे की अलमारी थी जहां 'निर्भया' की मां आशा की नरेंद्र मोदी, स्मृति ईरानी के साथ तस्वीरों के अलावा 'निर्भया' की याद को समर्पित ट्रॉफ़ियां, पुरस्कार, स्मृति चिह्न रखे थे.

निर्भया के पिता

घर बदल गया था लेकिन परिवार की ज़िंगदी आज भी जैसे सफ़दरजंग (अस्पताल) और घर के बीच में ही थी.

'निर्भया' के माता-पिता से मैं तीन साल बाद मिला था. पिछली बार उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में उनके गांव में घर के बाहर हम मिले थे. वो ज़मीन पर बिछे घास-फूस के बिस्तर पर परिवार और पड़ोसियों के साथ शॉल ओढ़े पालथी मारकर बैठे थे.

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चेहरे पर ग़म था, पथराई आंखों में थी निराशा. उदास, बेबस नज़रें ज़मीन पर टिकी थीं, जैसे सालों की तपस्या और ज़िंदगी भर की ख़ुशियां पल भर में आंखों से ओझल हो गई हों.

''लगता है आपसे पहले मिला हूं,'' दफ़्तर से वापस लौटे बद्रीनाथ जी ने मुझसे कहा. तीन साल पहले बलिया का ज़िक्र करने पर वो बोले, ''उस वक़्त मुझे होश ही कहां था किसी से मिलने का.'' ये कहकर वो साथ ही लगे दीवान पर बैठ गए.

गैंगरेप के ख़िलाफ़ प्रदर्शन

इमेज स्रोत, AFP

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पिछली बार की तरह आज परिवार से बात करना उतना मुश्किल नहीं था लेकिन जैसे-जैसे 16 दिसंबर का दिन नज़दीक आ रहा था, वैसे-वैसे यादें ताज़ा हो रही थीं.

ज़िंदगी जैसे उन्हीं तीन सालों के बीच घूम रही हो.

आशा देवी कहती हैं, ''जो उसको तकलीफ़ मिली, हमारे सामने उसकी एक-एक सांस जिस तरह से ख़त्म हो गई, वही चीज़ें सब दिखती हैं. वही याद आती है. वो तो मर गई लेकिन हम रोज़ मरते हैं, रोज़ जीते हैं.''

मेरा ध्यान फिर तीन साल पहले बलिया की ओर गया. घर पहुंचने के बाद मैं परिजनों के बीच बैठ गया था. अचानक एक रिश्तेदार ने तेज़ आवाज़ में बोलना शुरू किया, ''पूरे बलिया में कोई भी ऐसी घटना नहीं कर सकता.''

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गांव के सभी परिवारों में दहशत थी कि वो कैसे अपनी लड़कियों को दिल्ली पढ़ने के लिए भेजें. पास के गांव में कॉलेज नहीं था इसलिए लड़कियों को उच्च शिक्षा के लिए दूर भेजना मजबूरी थी. गांव की लड़कियां डर के मारे घर के बाहर नहीं निकल रही हैं.

एक व्यक्ति ने कहा था, ''अगर राजधानी में लड़कियों के साथ ऐसा हो तो कौन उन्हें पढ़ाई के लिए भेजेगा, कैसे उनका भविष्य बनेगा.''

ये सुनकर पास ही बैठे बद्रीनाथ सिंह ख़ुद को रोक नहीं पाए और बोले, ''वो ('निर्भया') मेरे से बोली, पापा, मुझे डॉक्टरी पढ़ाओ. मैंने बोला, मेरी आर्थिक स्थिति तो ऐसी है नहीं कि मैं डॉक्टरी पढ़ाऊं. प्राइवेट नौकरी करने वाला किसी को क्या डॉक्टरी पढ़ाएगा.''

उन्होंने 'निर्भया' को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन एक दिन वो चक्कर खाकर गिर पड़ी. फिर बद्रीनाथ सिंह ने उससे वायदा किया कि चाहे जो हो, वो उसे डॉक्टरी ही पढाएंगे.

उन्होंने बच्चों की बेहतर ज़िंदगी को ध्यान में रखकर 1983 में दिल्ली का रुख़ किया था. उनका विश्वास था कि पढ़ाई की ताक़त उनके बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देगी.

'निर्भया' की पढ़ाई के लिए बद्रीनाथ सिंह ने ज़मीन बेची. कुछ लोगों ने आपत्ति की पर उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया.

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लेकिन आज उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाक़ों में से एक इस गांव में सन्नाटा था, ग़ुस्सा और दहशत थी. लोग दोषियों के लिए फांसी की मांग कर रहे थे.

'निर्भया' का बड़ा भाई बहन के साथ गुज़ारे पलों, टीवी रिमोट को लेकर झगड़ों को याद करके रो रहा था. उसने मुझे बताया 'निर्भया' को टीवी सीरियल बहुत पसंद था और बिग बॉस उनका सबसे प्रिय कार्यक्रम था.

''दीदी मुझे डांटती थी लेकिन मुझे प्यार भी बहुत करती थी.'' पुरानी बातें भुलाए नहीं भूल रही थीं.

तीन साल गुज़र चुके हैं. तीन का तीस होने में वक़्त नहीं लगेगा. यादें लेकिन धूमिल नहीं होंगी.

कुछ यादें ख़ासकर. जैसे जब 'निर्भया' गेट पर गई तो हाथ हिलाकर बोली, बाय मम्मी मैं अभी दो-तीन घंटे में आ रही हूं.

या फिर सिंगापुर जाने से पहले उसका मम्मी को बुलाना लेकिन उनके आने से पहले ही बेहोश हो जाना.

उनकी मां ने बताया, ''मैं भागकर गई लेकिन मेरे जाते-जाते वो बेहोश हो गई. फिर उसे होश नहीं आया. मुझे ये तकलीफ़ रही है. वो सोती नहीं थी. वो आंख बंद करती थी तो डरती थी. कहती थी कि मम्मी मुझे लग रहा है. वो कहती थी कि मेरे पैरों के पास, कभी बग़ल में कोई खड़ा है. तो मैं बैठती थी, हाथ पकड़ती थी तो वो सोती थी. लेकिन यही दुख रहता है कि जब उसकी आवाज़ बंद हुई, आंख बंद हुई, तब मैं नहीं मिल पाई.''

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माता-पिता दोनों महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा पर आयोजित कार्यक्रमों में हिस्सा लेने जाते हैं लेकिन बच्चों को इन सबसे दूर रखते हैं.

आशा देवी को डर है कि अगर किसी कारण बच्चों की शिक्षा अधूरी रह गई तो उनकी पूरी ज़िंदगी ख़राब हो जाएगी.

उन्होंने मुझे बताया कि बच्चे अब उनसे उस तरह खुलकर बात नहीं करते, वो या तो रोते हैं, या फिर चुप रहते हैं.

उन्होंने बताया कि बच्चों के मन में ''बहुत तकलीफ़ है'' और उन्हें डर है, ''अगर अभी इनको इसमें निकाल देंगे तो इनमें बदले की भावना आ जाएगी.''

वो कहती हैं, ''पढ़ लिखकर अपने से इनके मन में अगर विचार आए कि हमें समाज के लिए कुछ करना है तो वो ज़्यादा अच्छा है. अभी हम दोनों लोग काफ़ी हैं.''

''मैं कहती हूं कि अभी भी समझो कि दीदी तुम्हारे साथ है, अभी भी उनके बताए रास्ते पर चलो. उनके गुणों को अपनाओ. और क्या कह सकते हैं उनको.''

वो बताती हैं, ''छोटा भाई कुछ बोलता ही नहीं है. बड़ा भाई कुछ रोता है, वो तो कुछ कहता ही नहीं है. वो बस यही कहता है, मम्मी बस अपना ध्यान रखो. वो अलग अपना रहता है. मैं कोशिश करती हूं कि वो अपनी तरफ़ ध्यान दे. उनकी पूरी ज़िंदगी उनके सामने है. ये बातें कभी भी किसी के मन से नहीं निकलेगी, लेकिन आगे तो बढ़ना ही पड़ेगा.''

बलात्कार में दोषी पाए गए नाबालिग़ को एक एनजीओ को सौंप दिए जाने की ख़बर पर आशा देवी कहती हैं कि ''अगर एक मुजरिम को बचाना होता है तो पूरी कायनात लग जाती है कि उनको फ़ांसी नहीं होना चाहिए, उनको सज़ा नहीं होना चाहिए. और अगर एक बच्ची रोड पर पड़ी रहती है, बचाने के लिए चिल्लाती है तो कोई सुनता ही नहीं है. देखकर मुंह मोड़ लेता है. अपराध के लिए कोई उम्र नहीं और सज़ा के लिए उम्र देखते हैं. तो मुझे अब निराशा हो रही है अपनी क़ानून व्यवस्था से.''

उन्हें इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि नाबालिग़ को किसे सौंपा जाएगा. उनके लिए तो वो जेल से बाहर आज़ाद है और समाज के लिए ख़तरा है.

वक़्त पहले जैसा नहीं है, न आएगा. क्योंकि वक़्त सिर्फ़ आगे बढ़ता है. आज घर में बहुत कम ही हंसी की गूंज सुनाई देती है. त्योहार नाममात्र को ही मनाया जाता है.

भविष्य में चुनौतियां अनेक हैं. वक्त बताएगा कि इन चुनौतियों से ये परिवार कैसे निपटेगा.

(बीबीसी संवाददाता विनीत खरे ने निर्भया की मां आशा देवी से ये बातचीत हाईकोर्ट से फ़ैसले से पहले की थी)

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