महिलाओं पर गीता प्रेस की 'तालिबानी सोच'

  • विनीत खरे
  • बीबीसी संवाददाता
रामायण

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1926 में गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘स्त्री धर्म प्रश्नोत्तरी’ या 1948 में छपे ‘नारी अंक’ को अगर आज की महिलाओं के हाथ में दे दिया जाए तो शायद वो गश खाकर गिर पड़ें.

गीता प्रेस ने ‘नारी धर्म’, ‘स्त्री के लिए कर्तव्य दीक्षा’, ‘भक्ति नारी’, ‘नारी शिक्षा’, ‘दांपत्य जीवन के आदर्श’, ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ जैसे अंक/ पुस्तिकाएं छापीं जिनमें स्त्रियों की पवित्रता पर ज़ोर था.

गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार की लिखी 42 पन्नों वाली पुस्तिका ‘स्त्री धर्म प्रश्नोत्तरी’ में सावित्री और सरला नाम की दो महिलाओं के बीच काल्पनिक बातचीत थी. सावित्री ज्ञान से पूर्ण है जबकि सरला अज्ञानी है.

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गीता प्रेस

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पुस्तिका में सरला, सावित्री से कई तरह के सवाल पूछती है, जैसे दांपत्य जीवन में क्या करना चाहिए, शादी के वक़्त क्या करना चाहिए, आभूषण पहनना चाहिए कि नहीं, पति के साथ कब संभोग करना चाहिए, गर्भावस्था के दौरान महिलाओं का व्यवहार कैसा होना चाहिए, विधवाओं का व्यवहार कैसा होना चाहिए.

सावित्री के अनुसार 13 साल की उम्र तक लड़की की शादी हो जानी चाहिए नहीं तो उपयुक्त वर नहीं मिलता.

‘स्त्री धर्म प्रश्नोत्तरी’ में सावित्री की पहली लाइन है, “महिला का सबसे महत्वपूर्ण धर्म है अपने पति के प्रति वफ़ादार रहना. उसकी ज़िंदगी का मक़सद होना चाहिए कि उसका पति ख़ुश रहे.”

याद रहे कि ये पुस्तिकाएं लाखों घरों में पहुंचती थीं और उनका आम लोगों की सोच पर व्यापक असर था. आज भी ये अंक गीता प्रेस के सबसे ज़्यादा बिकने वाले अंकों में से हैं.

पवित्रता पर ज़ोर

दलित विधवाएं

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पोद्दार का मानना था महिलाओं को नियमों के आधार पर जीवन बिताना चाहिए क्योंकि पवित्रता की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर है.

1920 के दशक में सनातन धर्म की मुख्य सोच थी कि हिंदू धर्म ख़तरे में है और ये ख़तरा इस्लाम और अंग्रेज़ों के आने से शुरू हुआ, नहीं तो हिंदू धर्म हर क्षेत्र में अव्वल था और सावित्री, शकुंतला, गौतमी जैसी हिंदू महिलाओं ने बढ़चढकर शौर्य और बुद्धि का परिचय दिया.

सोच ये भी थी कि इस्लाम और अंग्रेज़ों के भारत आने के बाद हिंदू सभ्यता भ्रष्ट हुआ और ज़रूरत है उसी पुराने समय में जाने की जब हिंदू समाज चरम पर था.

‘कल्याण’ ने विश्व को दो हिस्सों में विभाजित किया था: अंदरूनी दुनिया और बाहरी दुनिया.

औरतों से कहा गया, उनका काम है राष्ट्र का निर्माण. उन्हें पुत्रों को पैदा करना चाहिए जो देश की सेवा करे. उधर पुरुषों को घर से बाहर जाना पड़ेगा, उन्हें अंग्रेज़ी शिक्षा भी लेनी पड़ेगी.

पुरुष जब घर लौटे तो स्त्री का कर्तव्य है धर्म ग्रंथों के माध्यम से उसके चित्त को पवित्र करना. स्त्री को भीतरी दुनिया की रानी बताया गया, हालांकि ये दुनिया बेहद कठिन, निराशाजनक और चुनौतियों से भरी थी.

विशेषांकों को पढ़ें तो साफ़ है कि महिला से जुड़े हर मुद्दे पर पुरुष की सोच हावी दिखती है– वो कैसे खाएंगी, क्या पहनेंगीं, उनकी माहवारी के वक़्त उन्हें कैसे रहना है, पति-पत्नी से आंतरिक रिश्ते कैसे बरक़रार रहेंगे.

‘सती से प्रेरणा’

गीता प्रेस एंड हिंदू इंडिया

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पुस्तक ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ़ हिंदू इंडिया’ के लेखक अक्षय मुकुल बातचीत में ‘कल्याण’ में छपे एक पत्र का ज़िक्र करते हैं.

वो बताते हैं कि एक महिला ने ‘कल्याण’ को पत्र लिखा कि पति के दुर्वव्यवहार के कारण वो उन्हें छोड़ना चाहती थीं. इस पर पोद्दार का जवाब था, वो ऐसा न करें.

अपने जवाब के समर्थन में उन्होंने भारतीय महिलाओं के सती धर्म का उदाहरण दिया.

वो लिखते हैं, “सिर्फ़ भगवान को ही पता है कि ऐसे मनुष्य का क्या होगा. मैं ये नहीं कहना चाहता हूं क्योंकि भारतीय सती कभी भी अपने पति के विरुद्ध कुछ नहीं सुन सकती, चाहे वो कितना भी बुरा क्यों न हो.”

एक दूसरी महिला ने लिखा कि उनके साथ बलात्कार हुआ. इस पर पोद्दार की सलाह थी कि वो उसे एक बुरा सपना समझकर भूल जाएं.

अक्षय मुकुल के अनुसार पोद्दार की सोच ये थी कि विश्वविद्यालय जाने वाली महिलाएं गर्भवती हो जाती हैं.

अपने तर्क के पक्ष में पोद्दार पश्चिमी दुनिया की महिलाओं का उदाहरण देते थे, कि वो कैसे क्लबों में जाती हैं, शराब पीती हैं और नौकरी करने से उनमें अहंकार भर जाता है.

पोद्दार के अनुसार हिंदुस्तानी महिलाएं इन सबके लिए नहीं बनी हैं.

हनुमान प्रसाद पोद्दार को लिखे एक पत्र में जयदयाल गोयनका बेहद आपत्तिजनक भाषा में लिखते हैं, कि यूरोप जैसी आज़ादी भारतीय महिलाओं को मिल गई तो भारतीय महिलाओं पर उसका क्या प्रभाव होगा क्योंकि “भारतीय महिलाएं तो इतनी मूर्ख हैं कि वो 100 तक गिनती भी नहीं गिन सकतीं.”

गोयनका का मानना था कि पढ़ी-लिखी महिलाएं “नष्ट-भ्रष्ट” हो जाती हैं. वो सहशिक्षा के विरुद्ध थे.

पुरुष पर ज़ोर नहीं

भारतीय पुरुष

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गीता प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयनका और हनुमान प्रसाद पोद्दार की बहस में पुरुषों के स्वच्छंद व्यवहार को कभी बहस के लायक़ भी नहीं समझा गया.

स्त्रियों से उम्मीद की जाती थी कि वो पुरुषों के हर व्यवहार को बरदाश्त करें, साथ ही दूसरे पुरुषों के आकर्षण से भी दूर रहें.

1948 में छपे नारी अंक में एक लेखक के मुताबिक़ महिलाएं जब मातृत्व और घर का सुख उठा सकती हैं तो उन्हें दफ़्तर में वक़्त और ऊर्जा को व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए.

लेख के अनुसार शिक्षा का मक़सद होना चाहिए कि कैसे एक स्त्री बेहतर मां बन सकती है.

एक लेख के अनुसार स्त्री पुरुष की तुलना में शारीरिक और मानसिक तौर पर कमज़ोर होती हैं, इस कारण उन्हें गणित जैसे विषयों से दूर रहना चाहिए क्योंकि इससे उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है.

कल्याण पत्रिका महिला अंक

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एक जगह पोद्दार लिखते हैं, “माहवारी के दौरान महिलाओं में सेक्स की तीव्र इच्छा होती है. पति की शरण में रहने वाली महिला प्रदूषित होने से बच जाती है. लेकिन अविवाहित महिला में सेक्स की इच्छा उसे व्यभिचार की ओर ढकेलती है जिस तरह यूरोप में होता है.”

पोद्दार ने अपने लेखों में हिंदू महिलाओं को मुसलमान पुरुषों से दूर रहने को कहा और साथ ही उनका मानना था कि स्त्रियों को अपने पिता, भाई और बेटे से भी किसी अकेली जगह नहीं मिलना चाहिए.

गोयनका ‘नारी धर्म’ अंक में दावा करते हैं कि स्त्री के शरीर और चरित्र में विशेष कमियां हैं जिसके कारण वो आज़ादी की ज़िंदगी व्यतीत करने के लायक़ नहीं है. ये कमियाँ हैं – ग़ुस्सा, अपवित्रता, समझदारी की कमी, चालाकी आदि.

'कल्याण' के संपादक राधेश्याम खेमका ने बीबीसी से कहा कि हर काल खंड का अपना युग धर्म होता है. खेमका कहते हैं, ''हमारी धार्मिक कृतियाँ, हमारी परम्पराएँ, मूल्य-मान्यताएं सब उस समय के युग धर्म और सत्य पर आधारित होती हैं.''

उन्होंने कहा, "स्वाभाविक है कि नए लोगों और नए जीवन मूल्यों में विश्वास रखने वालों को वे बाते सहज न लगें. सभी को चयन की स्वतंत्रता है."

आज की नारी

महिलाएं

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इन लेखों पर महिला अधिकार कार्यकर्ता कविता कृष्णन कहती हैं कि दशकों पुराने छपे इन लेखों का असर आज भी गीता प्रेस के प्रकाशनों और संघ परिवार के कामों में नज़र आता है.

वो कहती हैं, “चाहे वो हिंदू स्त्री और मुस्लिम पुरुष के बीच प्रेम या दोस्ती हो, भारतीय महिलाओं की मां और पत्नी को लेकर सोच हो, घरेलू हिंसा का मामला हो, मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या को लेकर डर पैदा करना हो, आज भी इन लेखों का असर दिखता है."

"इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि गीता प्रेस ने हिटलर की उस अपील को छापा जिसमें स्त्री को पत्नी और मां की भूमिका तक सीमित रखने की बात कही गई थी."

विधवाओं के लिए नियम

विधवाएं

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  • विधवा को अपनी आंतरिक इच्छाओं को दबा देना चाहिए.
  • विधवा को कोमल बिस्तर पर नहीं ज़मीन पर सोना चाहिए.
  • विधवा को ख़ाली नहीं बैठना चाहिए.
  • उसे अपने रक्षक सास-ससुर, जेठ, देवर आदि के नियंत्रण में रहना चाहिए.
  • विधवा को कम उम्र की महिलाओं के साथ नहीं रहना चाहिए.
  • उसे मैथुन से दूर रहना चाहिए, पुरुष को नहीं देखना चाहिए.
  • उसे सेक्स से दूर रहना चाहिए, महिला या पुरुष के बारे में पढ़ना या बात नहीं करनी चाहिए.

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