एमपीलैड्स के इस्तेमाल में वरिष्ठ सांसद पीछे
- सलमान रावी
- बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली
सांसदों को अपने चुनाव क्षेत्र के विकास के लिए मिलने वाली राशि सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना यानि एमपीलैड्स के इस्तेमाल में कई वरिष्ठ सांसद काफी पीछे हैं.
पिछले एक साल में सांसद निधि का एक रुपया भी खर्च न कर पाने वालों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह, भाजपा सांसद मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती के साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव के नाम प्रमुख हैं.
यह नेता उन 298 सांसदों में से हैं जिनकी सांसद निधि में से कुछ भी खर्च नहीं हुआ है.
स्थानीय प्रशासन का ज़िम्मा
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के हिसाब से लोकसभा के 543 सांसदों को इस मद में आवंटित 1,757 करोड़ रुपये में से 281 करोड़ रुपये ही खर्च हुए हैं.
साल 1993 से शुरू की गई इस योजना के पैसे को लोकसभा सांसदों को अपने चुनाव क्षेत्र में कहीं भी और राज्यसभा सांसदों को अपने राज्य में कहीं भी और मनोनीत सांसदों को देश भर में कहीं भी विकास कार्यों के लिए आवंटित की जाती है.
सांसद निधि का इस्तेमाल सामुदायिक भवन, बिजली, सड़क और पीने के पानी पर किया जाता है.
आखिर क्या कारण है कि सांसद इस मद में मिलने वाले पैसे को समय पर खर्च नहीं कर पाते हैं?
सांसदों का कहना है कि सांसद निधि का क्रियान्वयन पूरी तरह से स्थानीय प्रशासन पर निर्भर करता है.
इसके अलावा इस योजना के अंतर्गत काम करवाने की प्रक्रिया बहुत लंबी है. इस वजह से कभी-कभी एक छोटा सा काम करवाने में भी महीनों या साल लग जाते हैं.
'चापाकल में छह महीने'
लोकसभा में झारखण्ड के धनबाद से भाजपा सांसद पशुपति नाथ सिंह बताते हैं कि किसी गांव में एक चापाकल (हैंडपंप) लगवाने की प्रक्रिया भी बहुत लम्बी है.
वो बताते हैं, "गांव में चापाकल लगवाने के लिए पहले ग्रामसभा की बैठक बुलाई होती है, जिसमें चापाकल लगवाने का प्रस्ताव पास होता है. फिर उस काम के लिए बैंक में एक खाता खोलना होता है. फिर उसका ऑडिट होता है. इसके बाद एक चापाकल लग पाएगा. यह प्रक्रिया देखने में तो कुछ भी नहीं लगती लेकिन कभी-कभी तो एक चापाकल लगवाने में छह महीने से ज़्यादा तक का समय भी लग सकता है."
राज्यसभा में बिहार से जनता दल (यूनाइटेड) के सांसद ग़ुलाम रसूल बलियावी कहते हैं कि सांसद निधि के क्रियान्वयन के लिए ज़िला अधिकारियों को मनोनीत किया गया है और इस मद में जो भी काम होना है वह उन्हीं के माध्यम से होना है.
वो कहते हैं, "अब हमने जिलाधिकारी को लिखा क्योंकि वही 'नोडल' अफसर हैं. फिर ज़िला अधिकारी फ़ाइल को कल्याण अधिकारी और प्रोग्राम अफसर को बढ़ा देते हैं. फिर उस काम की निविदा निकाली जाती है. जो काम एक हफ्ते में ख़त्म हो जाना चाहिए, वह काम शुरू होते होते छह महीने लग जाते हैं."
'एक नीति की ज़रूरत'
केंद्र सरकार ने 2014 में सांसद आदर्श ग्राम योजना शुरू की. इसके तहत हर सांसद को अपने क्षेत्र में एक गांव को गोद लेने की योजना है. लेकिन सांसदों का कहना है कि इस योजना के लिए अलग से राशि का प्रावधान नहीं किया गया है.
बलियावी और पशुपति नाथ सिंह दोनों के मुताबिक़ सांसद निधि के तहत मिलने वाली राशि बहुत कम है.
पांच बार से सांसद चुनकर आ रहे भाजपा नेता रविंद्र कुमार पाण्डेय कहते हैं कि यह कहना ग़लत होगा कि सांसदों ने मिलने वाला पैसा खर्च नहीं किया.
उनका कहना है कि यह राशि केंद्र सरकार से सीधे राज्यों को जाती है. सांसदों की भूमिका सिर्फ अनुशंसा करने तक ही सीमित है.
मगर पशुपति नाथ सिंह के मुताबिक़, "इस योजना के क्रियान्वयन के नियम राज्य सरकार बनाती है न कि केंद्र सरकार. इसमें केंद्र सरकार के अनुसार काम नहीं होगा. अलग अलग राज्यों में इसके क्रियान्वयन के लिए अलग-अलग नियम हैं. ज़रूरत है एक समग्र नीति की जो सब जगह एक समान रूप से लागू हो सके."
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