क्या चल रहा होता है बलात्कारी के दिमाग़ में

  • द्रोण शर्मा
  • ब्रिटेन के जाने-माने मनोचिकित्सक
बलात्कार विरोध प्रदर्शन

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निर्भया कांड ने भारत को अंदर से झकझोर कर रख दिया था और लोगों को अपने गिरेबान में झांकने पर मजबूर किया. इस घटना से भारतीय जनमानस में निराशा, आक्रोश और गुस्से की सुनामी आ गई थी.

नेताओं और जानी-मानी हस्तियों के बयानों की वजह से भी ये मामला चर्चा में रहा, जिनमें देर रात लड़कियों के घूमने और उनके छोटे कपड़े पहनने पर टिप्पणियाँ शामिल हैं. मिसाल के तौर पर मुलायम सिंह, ममता बैनर्जी और राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बेटे के बयान को याद किया जा सकता है.

इस हफ़्ते यह मामला गैंगरेप में शामिल एक बलात्कारी के बयान की वजह से सुर्खियों में आया है जिसमें उसने बलात्कार के लिए पीड़ित लड़की को ही दोषी ठहराया गया है.

जिम्मेवार

मुकेश सिंह, बलात्कार का दोषी

अपराधी को अपने किए पर पछतावा नहीं होना और पीड़िता के साथ बिल्कुल भी हमदर्दी नहीं रखना एक अपराधी के दिमाग के उन पहलुओं की ओर ले जाता है जहाँ उसका दिमाग बलात्कार का शिकार बनने लिए न सिर्फ पीड़िता को ही दोषी ठहराता है बल्कि मौत के लिए भी पीड़िता के प्रतिरोध को ज़िम्मेदार समझता है.

मुकेश सिंह का कहना है, "बलात्कार के वक़्त उसे (निर्भया को) विरोध नहीं करना चाहिए था. उसे चुपचाप बलात्कार होने देना चाहिए था. अगर ऐसा होता तो हम बिना कोई नुकसान पहुँचाए उसे छोड़ देते."

मौत की सज़ा पर मुकेश का कहना है कि न्यायालय इससे समस्या का समाधान नहीं निकाल रहा बल्कि उल्टे किसी भी बलात्कार पीड़िता के लिए खतरा बढ़ा रहा है कि बलात्कार के बाद उनका कत्ल कर दिया जाए ताकि बलात्कारियों के पकड़े जाने की संभावना कम हो जाए.

यौन अपराधियों के ऊपर काम करने वाले एक मनोवैज्ञानिक के रूप में मैं इस बलात्कारी के बयान से अचंभित नहीं हूँ, लेकिन मौत की सज़ा सिर्फ उन मामलों से निपटने के लिए है जिसमें यौन अपराधी पकड़े जाते हैं और जिन पर अपराध साबित होता है लेकिन उन अपराधियों का क्या जो कभी पकड़े ही नहीं जाते और फिर उन लोगों का भी क्या जो हम लोगों के बीच में होते हैं और उनके अंदर इसी तरह के लक्षण पाए जाते हैं.

वैज्ञानिक आकलन

बिना किसी ठोस मूल्यांकन पद्धति और उपचार कार्यक्रम के यह मुद्दा हमारे बस से बाहर की चीज़ होगी. सवाल यह है कि कैसे एक आम आदमी, यौन अपराधी में तब्दील हो जाता है?

इस मसले को समझने के लिए अब तक कई शोध किए गए हैं. इस संबंध में जहाँ 'फिंकेलहोर मॉडल' यौन अपराध के लिए पहले से लक्षण मौजूद होने की बात करता है तो वहीं 'वोल्फ मॉडल' यौन अपराध की चक्रीय प्रक्रिया की बात करता है.

ये दोनों मॉडल ही संज्ञानात्मक विकृतियों (कॉग्निटीव डिस्टॉर्शन) की अवधारणा पर आधारित हैं.

संज्ञानात्मक विकृतियां आम तौर पर वे तर्क होते हैं जिससे हम अपने कामों और व्यवहारों को तर्कसंगत और न्यायसंगत ठहराते हैं जिन्हें लेकर हम चिंतित रहते हैं या उसे बदलना चाहते हैं. मसलन हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सिगरेट पीने, जंक फूड खाने, नियमित कसरत नहीं करने या पढ़ाई नहीं करने के लिए इसका सहारा लेते हैं ताकि ग़लत काम करने पर ही हमारे दिमाग़ का चैन न बिगड़े.

तर्कों का सहारा

एक यौन अपराधी भी बिल्कुल ऐसे ही अपने यौन अपराध को न्यायसंगत ठहराने के लिए ऐसे ही तर्कों का सहारा लेता है. मसलन वो पीड़िता के संबंध में इस तरह की बात करेगा कि उसने मुझे बलात्कार के लिए उकसाया था, मैं तो निर्दोष हूँ.

उसके अंदर हमदर्दी नहीं पैदा होगी क्योंकि वे या तो पीड़िता के डर और पीड़ा को देखने में असमर्थ होते हैं या देखना नहीं चाहते हैं, दूसरे के जख्मों को महसूस नहीं कर पाते है और कहते हैं कि अगर विरोध नहीं किया गया होता तो ऐसा नहीं होता.

पीड़ित के पहनावे, हाव-भाव, और व्यवहार को दोषी ठहराना. पीड़िता को अपनी संपत्ति समझना और उस पर अत्याचार करना अपना हक़ समझना, ये सब यौन अपराधियों में बिल्कुल आम है.

तस्ल्ली देने वाली सोच जिसकी तहत वह अपने डर पर काबू करता है, मसलन, वो सोचता है कि भविष्य में पीड़िता को डेट पर ले जाएगा या उसके साथ शादी कर लेगा.

संज्ञानात्मक विकृतियों के दूसरे पहलुओं में यौन हिंसा, बलात्कार को लेकर मिथक, विरोधात्मक यौन धारणाएं, सेक्स को लेकर परंपरागत धारणाएं और औरतों के प्रति हिंसा को जायज मानने जैसी बातें शामिल हैं.

संभावना

महिला विरोधी प्रवृत्तियों और यौन हिंसा में एक मज़बूत संबंध दिखाई पड़ता है.

शराब और ड्रग का नशा इस सोच को और मज़बूत बनाता है कि वे अपराध करने के बाद बच निकलेंगे.

निर्भया जैसी भयावह घटनाएं इस बात की तस्दीक करते हैं कि ऐसे मामलों को हम सिर्फ़ न्यायिक व्यवस्था के सहारे नहीं छोड़ सकते हैं, इसे सिर्फ गंभीरता से लेने के अलावा इसकी संभावना को कम करने के दिशा में भी बहुत कुछ किया जाना चाहिए.

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