जिम्नास्टिक्स को लोग सर्कस समझते थे: दीपा
- नौरिस प्रीतम
- वरिष्ठ खेल पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
भारत की दीपा कर्मकार ओलंपिक में बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद जिमनास्टिक के वॉल्ट इवेंट में चौथे नंबर पर रहीं. वो बड़े मामूली अंतर से कांस्य पदक से चूक गईं.
इसके बावजूद दीपा के प्रदर्शन की ख़ासी तारीफ़ हो रही है और उन्हें भविष्य के लिए भारत की उम्मीद बताया जा रहा है.
दीपा ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि लोग पहले जिम्नास्टिक के बारे में पूछते थे- 'क्या ये सर्कस है?'
पढ़िए दीपा कर्मकार से बातचीत के ख़ास अंश-
"मेरे पापा वेट-लिफ्टिंग कोच थे लेकिन उनको जिम्नास्टिक्स पसंद था. वो मुझे जिम्नास्टिक्स में लाए.
मेरी पहली कोच सुमानंदी थीं और उसके बाद मेरे कोच हुए बिश्वेश्वर नंदी.
पहले मुझे ये इतना पसंद नहीं था और मैं जानती भी नहीं थी कि मुझे ये आगे भी जारी रखना होगा.
2007 में जूनियर खेलने के बाद मुझे लगा कि मुझे इसे आगे जारी रखना है. 2010 के बाद शिव कुमार को मेडल मिला तो मैंने इसे जारी रखने का पक्का इरादा कर लिया.
ओलंपिक के फ़ाइनल में मेरे कोच ने कहा कि तुम फ़ाइनल में बहुत ख़राब करोगी तो आठवें नंबर पर रहोगी. उससे नीचे तो नहीं जाओगी ना, इसलिए तुम अपना बेहतर प्रदर्शन देने की कोशिश करो.
लेकिन मैं दुखी हूं कि मैं अपने देश को मेडल नहीं दिलवा पाई. जिस दिन मैं ये कर पाई उस दिन बहुत खुशी होगी.
अगर मुझे खेल रत्न मिलता है तो बहुत खुशी होगी. इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मेरे कोच बीएस नंदी को द्रोणाचार्य अवार्ड मिले. वो इस बार इसके लिए पूरी तरह से योग्य हैं.
भारतीय कोचों को तो लोग भाव ही नहीं देते. सब विदेशी कोच के पीछे भागते हैं.
मैं चाहती हूं कि भारतीय कोच को भी अहमियत दी जाए. हमारे भारतीय कोच भी विदेशी कोच जितनी काबिलियत रखते हैं.
मुझे पढ़ाई करना इतना पसंद नहीं है. उससे ज़्यादा आसान तो वॉल्ट करना है. लेकिन सर ने बताया कि पढ़ाई भी बहुत ज़रूरी है इसलिए मैं पढ़ लेती हूं.
जैसे किसी को चिकन ज़्यादा पसंद होता है तो किसी को मछली. उसी तरह मुझे जिम्नास्टिक्स ज़्यादा पसंद है.
मैं यहां ओलंपिक से जो याद लेकर जा रही हूं, वो यह है कि मैं 0.15 अंक से मेडल से चूक गई."
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