नज़रिया: क्या नेहरू को नहीं पसंद थे भीम राव आंबेडकर?
- मिर्ज़ा असमेर बेग
- प्रोफ़ेसर, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
कांग्रेस ने आंबेडकर को संविधान सभा में जाने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश की.
आंबेडकर की समाज सुधारक वाली छवि कांग्रेस के लिए चिंता का कारण थी. यही वजह है कि पार्टी ने उन्हें संविधान सभा से दूर रखने की योजना बनाई.
संविधान सभा में भेजे गए शुरुआती 296 सदस्यों में आंबेडकर नहीं थे. आंबेडकर सदस्य बनने के लिए बॉम्बे के अनुसूचित जाति संघ का साथ भी नहीं ले पाए.
उस समय के बॉम्बे के मुख्यमंत्री बीजी खेर ने पटेल के कहने पर सुनिश्चित किया कि आंबेडकर 296 सदस्यीय निकाय के लिए न चुने जाएं.
जोगेंद्रनाथ मंडल और मुस्लिम लीग का समर्थन
जब वो बॉम्बे में असफल रहे तो उनकी मदद को बंगाल के दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल सामने आए. उन्होंने मुस्लिम लीग की मदद से आंबेडकर को संविधान सभा में पहुंचाया.
यही मंडल बाद में पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने. ये अलग कहानी है कि 1950 में वो पाकिस्तान छोड़ भारत आ गए.
उधर आंबेडकर को संविधान सभा में जाने से पहले कुछ और बाधाएं पार करनी पड़ीं.
हिंदू बहुल होने के बाद भी चार ज़िले पाकिस्तान को सौंपे
जिन ज़िलों के वोटों से आंबेडकर संविधान सभा में पहुंचे थे वो हिंदु बहुल होने के बावजूद पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बन गए.
नतीजतन आंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए. भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई.
पाकिस्तान बनने के बाद भारत में रहे बंगाल के हिस्सों में से दोबारा संविधान सभा के सदस्य चुने गए.
जब कहीं से उम्मीद नहीं बची तो आंबेडकर ने धमकी दी कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे.
कहा जाता है कि इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया. इसी दौरान बॉम्बे के एक सदस्य एमआर जयकर ने संविधान सभा में अपना पद से इस्तीफ़ी दे दिया.
कांग्रेस पार्टी ने फ़ैसला किया कि एमआर जयकर की खाली जगह आंबेडकर भरेंगे.
हिंदू कोड बिल पर नाराज़गी
जब आंबेडकर ने सितंबर 1951 में कैबिनेट से इस्तीफ़ा देते हुए विस्तार से अपने इस्तीफ़े के कारण गिनाए. वो सरकार के अनुसूचित जातियों की उपेक्षा से नाराज़ थे.
आख़िरकार वो चीज़ जिसने उन्हें इस्तीफ़े के लिए बाध्य किया वो था हिंदू कोड बिल के साथ सरकार का बर्ताव.
यह विधेयक 1947 में सदन में पेश किया गया था लेकिन बिना किसी चर्चा के जमींदोज हो गया. उनका मानना था कि यह इस देश की विधायिका का किया सबसे बड़ा सामाजिक सुधार होता.
आंबेडकर ने कहा कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद ये बिल संसद में गिरा दिया गया.
अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, "अगर मुझे यह नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के वादे और काम के बीच अंतर होना चाहिए, तो निश्चित ही ग़लती मेरी नहीं है."
नेहरू ने आंबेडकर के प्रति अपनी नापसंदगी नहीं छुपाई
इसके बाद भी कांग्रेस से आंबेडकर विरोध जारी रखा.
साल 1952 में आंबेडकर उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से लड़े. लेकिन कांग्रेस ने आंबेडकर के ही पूर्व सहयोगी एनएस काजोलकर को टिकट दिया और आंबेडकर चुनाव हार गए.
कांग्रेस ने कहा कि आंबेडकर सोशल पार्टी के साथ थे इसलिए उसके पास, उनका विरोध करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था.
नेहरू दो बार निर्वाचन क्षेत्र का दौरा किया और आख़िर में आंबेडकर 15 हज़ार वोटों से चुनाव हार गए.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई, आंबेडकर को 1954 में कांग्रेस ने बंडारा लोकसभा उपचुनाव में एक बार फिर हराया.
ये घटनाएं साबित करती हैं कि कांग्रेस और उसके नेता खासकर नेहरू कभी आंबेडकर पर भरोसा नहीं करते थे और उन्होंने अपनी नापसंदगी को छिपाने का प्रयास भी कभी नहीं किया.
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