'मंगल मिशन' को बदल सकते हैं ये फफूंद वाले जूते
- डिएगो ओर्टिज़
- संवाददाता, बीबीसी फ़्यूचर
साल 2016 में डिज़ाइनर लिज़ सियोकाजलो को न्यूयॉर्क के म्यूज़ियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट से एक ठेका मिला.
उन्हें 'मून बूट' को नए सिरे से बनाने को कहा गया. ये मून बूट अपोलो अंतरिक्ष मिशन के अंतरिक्ष यात्रियों के बूटों से प्रेरित था.
मून बूट देखने में बर्फ़ में पहने जाने वाले बूटों जैसा था जिसमें मुलायम फ़र लगे हुए थे.
मून बूट को 1972 में उस वक़्त बनाया गया था, जब चांद पर मिशन की चर्चा ज़ोर-शोर से हुआ करती थी.
इसे कला की दुनिया में ये 20वीं सदी के प्लास्टिक युग का बड़ा प्रतीक माना जाता है.
अब इस म्यूज़िम का रख-रखाव करने वाले इसे नई सदी का लुक देना चाहते थे.
लिज़ सियोकाजलो ने इस बूट की नए सिरे से परिकल्पना करनी शुरू की.
लिज़ को पता था कि अब प्लास्टिक के बाद का दौर है, तो किसी ऐसी चीज़ से बूट बनाने होंगे, जो जैविक पदार्थ हों.
लेकिन, अब इस बूट के लिए नई मंज़िल भी लिज़ को तय करनी थी.
ख़ास बूट
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर
समाप्त
हम से पहले की पीढ़ी चांद पर पहुंचने की तमन्ना रखती थी. मगर इक्कीसवीं सदी में इंसान मंगल पर जाने के ख़्वाब देख रहा है.
अब मंगल ग्रह तक जाना है, तो बूट भी तो ख़ास होना चाहिए.
लिज़ कहती हैं कि, 'मंगल ग्रह को हमारे ख़्वाबों में ख़ास जगह हासिल है. ये ऐसा ठिकाना है जहां पर जाकर आप फिर से धरती पर कैसे रहें, इसकी कल्पना कर सकते हैं.'
लिज़ को इस ठेके के चलते एक ऐसी चीज़ मिली जिस पर इंजीनियरों और स्पेस साइंटिस्ट की पहले से ही निगाह थी.
नासा और यूरोपीय स्पेस एजेंसी यानी ईएसए पहले से ही इस तत्व की मदद से अंतरिक्ष में नई चीज़ें बनाने पर काम कर रहे थे.
लिज़ के नए मून बूट का जो डिज़ाइन आख़िर में मंज़ूर हुआ, वो महिलाओं का मज़बूत दिखने वाला बूट था.
इसे किसी अंतरिक्षयान पर भी बनाया जा सकता था और इस बूट को बनाने के लिए ज़रूरत केवल दो चीज़ों की थी-इंसान का पसीना और कुछ कुकुरमुत्तों के बीजाणु.
अब अगर आप को मंगल ग्रह तक पहुंचना है, तो ये सफ़र फ़िलहाल तो सात महीनों तक का होगा. इस सफ़र पर आप बहुत ज़्यादा सामान भी नहीं ले जा सकेंगे.
लिज़ के हाथ जो जादुई चीज़ लगी है, उसका नाम है-माइसीलियम. ये फफूंद या कुकुरमुत्तों की शुरुआती अवस्था होती है. यानी जड़ें जिसके ज़रिए फफूंद फैलना शुरू करती है.
आपने इसे अक्सर खाने-पीने के सामान, कूड़े के ढेर पर पसरे हुए जाल के तौर पर देखा होगा. इसे ऐसे समझना आसान होगा कि कुकुरमुत्ते अगर फल हैं, तो माइसीलियम इसकी जड़.
माइसीलियम की ख़ूबियां ज़बरदस्त हैं. ये ख़राब चीज़ों को रिसाइकल करने की ताक़त रखता है.
ये लकड़ी के बुरादे या खेती के कचरे में फल-फूल सकता है. इससे ज़्यादा से ज़्यादा चीज़ें तैयार हो सकती हैं.
अगर सही माहौल मिले, तो ये अनंत मात्रा में फल-फूल सकता है. ये बिना टूटे हुए कंक्रीट से भी ज़्यादा दबाव झेल सकता है.
ये इंसुलेटर का काम करता है. यानी बिजली इससे नहीं गुज़र सकती. इसमें आग से मुक़ाबले की भी क्षमता होती है. अंतरिक्ष मिशन पर ये विकिरण यानी रेडिएशन से भी बचाने में मदद कर सकता है.
धरती के क़रीब होने का एहसास
अभी माइसीलियम से छतों के पैनल, चमड़ा और पैकेजिंग के अलावा मकान बनाने के सामान तैयार होते हैं.
लेकिन, अंतरिक्ष के मिशन में इसके निर्माण कार्य में इस्तेमाल होने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं.
कलाकार और इंजीनियर मॉरिज़ियो मोनटाल्टी कहते हैं कि, 'आपको कम वक्त में ज़्यादा तत्व तैयार करने के लिए कोशिकाओं के विकास की ज़रूरत होती है. ये काम माइसीलियम आसानी से कर सकता है.'
मून बूट को नए सिरे से बनाने के लिए लिज़ सियोकाजलो इंसान के शरीर से भी कोई तत्व लेना चाहती थीं. उन्होंने इसके लिए पसीने का इस्तेमाल करने की सोची.
वैसे पसीने का फिर से इस्तेमाल अंतरिक्ष में पहले से ही हो रहा है. इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर रह रहे अंतरिक्षयात्रियों के पेशाब और पसीने को रिसाइकिल कर के पीने लायक़ पानी बनाया जाता है.
लेकिन, पसीने से जूते बनाने का प्रयोग अनूठा है. लिज़ को लगता है कि जब एस्ट्रोनॉट मंगल ग्रह के लंबे सफ़र पर जाएंगे, तो ये चीज़ उन्हें धरती के क़रीब होने का एहसास दिलाएगी.
वैसे अंतरिक्ष में माइसीलियम का इस्तेमाल बहुत लंबे वक़्त से हो रहा है.
लिज़ ने रिसर्च से पता लगाया कि 1893 के एक स्त्रीवादी उपन्यास में मंगल ग्रह की कल्पना एक ऐसी जगह के तौर पर की गई थी, जहां औरत और मर्द के रोल बदल जाते हैं.
इसीलिए लिज़ ने नया मून बूट महिलाओं के लिए बनाया. उन्होंने इस बूट का नाम 'कास्किया' रखा है, जो उस उपन्यास से ही प्रेरित है.
कास्किया उस काल्पनिक ग्रह में इकलौता ऐसा ठिकाना है, जहां औरतों और मर्दों को बराबर के अधिकार हासिल हैं.
हालांकि माइसीलियम और पसीने से मिलाकर बूट बनाने की योजना अभी डिज़ाइन के ही दौर में है.
लिज़ ने जो बूट बनाकर लंदन डिज़ाइन म्यूज़ियम में रखा है, उसमें माइसीलियम का तो इस्तेमाल हुआ है, पर पसीने का नहीं. क्योंकि उन्हें ये बूट बनाने के लिए बहुत कम वक़्त मिला था.
फफूंद का प्रयोग
माइसीलियम का विकास कई रंग-रूप में किया जा सकता है. लकड़ी के बुरादे में इसके बीजाणु डाल के विकसित किया जा सकता है. सही तापमान और नमी में इन्हें विकसित करने से रेशेदार ठोस चीज़ तैयार होगी.
नासा और ईएसए ऐसे ही माइसीलियम को अपने मंगल मिशन में इस्तेमाल करने की सोच रहे हैं.
कैस्किया बूट बनाने के लिए एक ख़ास तरह की फफूंद का प्रयोग किया गया. फफूंद की पचास लाख से ज़्यादा क़िस्में होती हैं.
ये फफूंद इंसान के पसीने में पनपाए गए. मोन्टाल्टी कहते हैं कि भविष्य में जब ऐसे बूट बनाए जाएंगे, तो माइसीलियम को सीधे अंतरिक्षयात्रियों के पैरों के इर्द-गिर्द पसीने की मदद से विकसित होने दिया जाएगा.
अच्छी बात ये है कि इस फफूंद के विकास को आराम से नियंत्रित किया जा सकता है. अगर तेज़ी से डेवेलप कराना है, तो नमी और गर्मी को माकूल बना दें. वरना तापमान बढ़ाकर इसके विकास को रोक दें.
मंगल ग्रह या अंतरिक्ष में माइसीलियम की ये ख़ूबी काफ़ी कारगर रहेगी.
मोल्टाल्टी मानते हैं कि केवल पसीने से माइसीलियम का विकास शायद संभव न हो. इसे कुछ और पोषक तत्वों की ज़रूरत होगी.
ईएसए यानी यूरोपीय स्पेस एजेंसी माइसीलियम को लेकर कई अद्भुत प्रयोग कर रही है. इस प्रयोग में मोंटाल्टी और उत्रेख्ट यूनिवर्सिटी की टीम शामिल है.
ये पता लगाने की कोशिश हो रही है कि क्या फफूंद की मदद से इमारतें बनाई जा सकती हैं, जैसे कि लैब या दूसरी सुविधाएं.
इसकी वजह भी है. धरती से बने बनाए मकान मंगल ग्रह पर ले जाना संभव नहीं होगा. हर पाउंड वज़न को मंगल ग्रह तक ले जाने का ख़र्च क़रीब 10 हज़ार डॉलर पड़ेगा. मंगल ग्रह पर खुदाई और भी बड़ी मुश्किल और महंगी चीज़ है.
इसके बाद चुनौती कचरे के निपटारे की भी आएगी. ईएसए के इस प्रयोग के नतीजे आ गए हैं. लेकिन अभी सार्वजनिक नहीं किए गए हैं. इंजीनियर माइसीलियम से थ्रीडी प्रिंटिंग कर के नए विकल्प भी बना सकते हैं.
लकड़ी के कचरे का इस्तेमाल
नासा भी मंगल मिशन की स्थापना के लिए वहीं पर बिल्डिंगें बनाने के प्रयोग कर रहा है.
अमरीकी वैज्ञानिक सोच रहे हैं कि किसी प्लास्टिक के खांचे के इर्द-गिर्द माइसीलियम उगाया जाए. फिर इसे अंतरिक्ष यान से मंगल ग्रह ले जाया जाए.
वहां पर फिर से फफूंद को विकसित किया जाए. फफूंद का विकास खान-पान कम होने से रुक जाता है. सही तापमान नहीं मिलता.
गर्मी से इसके बीजाणु ख़त्म कर दिए जाएं. पर जब भी सही माहौल मिलेगा, ये बीजाणु फिर से जी उठेंगे.
माइसीलियम में मेलानिन होता है, जो इंसानों को ब्रह्मांड के विकिरण से बचाएगा.
धरती पर माइसीलियम का ख़ूब इस्तेमाल हो रहा है. जैसे की कार्ल्सरू इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी और स्विटज़रलैंड का फ़ेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी मिलकर ऐसा माइसीलियम विकसित कर रहे हैं, जो छत को सहारा दे सके.
माइसीलियम अर्थव्यवस्था के गोल-गोल घूमने वाले चक्कर जैसा है. आप लकड़ी के कचरे के इस्तेमाल से इसे विकसित कर सकते हैं. फिर इसे भी आगे चलकर माइसीलियम के बीजाणुओं के विकास में इस्तेमाल किया जा सकता है.
इंडोनेशिया की कंपनी माइको टेक के आर्किटेक्ट एडी रेज़ा नुग्रोहो कहते हैं कि, 'अभी हमारा मैटेरियल दूसरों से निकालकर तैयार होता है. अब हम माइसीलियम से ही माइसीलियम तैयार करने का इरादा रखते हैं.'
अगर नासा और ईएसए के प्रयोग कामयाब रहते हैं, तो फफूंद के कुछ बीजाणुओं से मंगल ग्रह पर कॉलोनी विकसित किए जाने का रास्ता साफ़ होगा. इनकी मदद से दर्जनों अंतरिक्ष यात्रियों के मंगल पर जीवन बिताने की कल्पना की जा सकती है.
और अगर लिज़ सियोकाजलो और मोंटाल्टी अपने इरादे में कामयाब रहे और इंसान अपना कुछ पसीना इस मिशन में लगा सके, तो उनके पैरों के जूते भी फफूंद से तैयार होंगे.
ये भी पढ़ें:-
(बीबीसी फ़्यूचर पर इस स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. आप बीबीसी फ़्यूचर को फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)