रामपुर और आज़मगढ़ में बीजेपी की जीत: योगी, अखिलेश और आज़म खान के लिए क्या हैं इसके मायने

  • अनंत झणाणें
  • बीबीसी संवाददाता, लखनऊ से
उत्तर प्रदेश

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उत्तर प्रदेश में हर चुनाव नतीजों के नज़रिये से दिलचस्प होता है और प्रदेश की मौजूदा राजनीति में माहौल बनाने का काम करता है. भले ही वो 80 लोकसभा सीटों वाले प्रदेश की सिर्फ 2 सीटों का उपचुनाव ही क्यों न हो.

रामपुर में आज़म खान की जेल से रिहाई के बाद और स्थानीय लोगों की उनके साथ सहानुभूति के बावजूद उनके चुने हुए प्रत्याशी और करीबी माने जाने वाले आसिम राजा भाजपा के घनश्याम लोधी से 40 हज़ार से ज़्यादा वोटों से चुनाव हार गए.

उन्हें हराने वाले घनश्याम लोधी भी आज़म खान के करीबी लोगों में से एक थे.

लेकिन विधान सभा चुनावों के ठीक पहले उन्होंने समाजवादी पार्टी छोड़ भारतीय जनता पार्ची की सदस्यता ली थी.

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साल 2019 में अखिलेश यादव आज़मगढ़ की सीट 24 प्रतिशत वोटों के मार्जिन से जीते थे. लेकिन इस बार उनके चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव उर्फ़ निरहुआ के हाथों हारना पड़ा.

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रामपुर में भाजपा ने लगाई सेंध

रामपुर में सपा प्रत्याशी आसिम राजा के लिए प्रचार में आज़म खान अकेले बड़े नेता थे लेकिन घनश्याम लोधी को भाजपा के कई सारे मंत्रियों और खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रचार का सहारा मिला.

दोनों जगह पर चुनावी जीत हासिल करके भाजपा ने अपनी राजनीतिक मज़बूती को दिखाया है.

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जीत के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, "डबल इंजन की सरकार ने इस उपचुनाव में डबल जीत हासिल की है. 2024 के लिए यह दूरगामी संदेश दे दिया है. इस चुनाव में परिवारवादी ताक़तों को स्पष्ट सन्देश जनता जनार्दन ने दिया है. 2024 में भाजपा उत्तर प्रदेश के अंदर 80 से 80 सीटों की ओर अग्रसर हो रही है. आज की विजय ने यह संदेश बहुत स्पष्ट रूप से सभी सामने प्रस्तुत किया है."

वैसे दिलचस्प यह है कि इन उप चुनाव के दौरान अखिलेश यादव कहीं नज़र नहीं आए. रामपुर में उन्होंने प्रत्याशी के चयन और प्रचार सभी का ज़िम्मा आज़म खान कर छोड़ रखा था, जबकि अपनी छोड़ी सीट आज़मगढ़ में वे प्रचार के लिए नहीं पहुंचे.

एक तरह से रामपुर का उपचुनाव आज़म ख़ान के लिए इम्तिहान था. मतदान के दौरान आज़म खान के बेटे और विधायक अब्दुल्ला आज़म ने आरोप लगाए कि रामपुर में प्रशासन लोगों को वोट डालने से रोक रहा है.

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माना जा रहा है कि इस सीट पर हार का असर आज़म खान पर ज़रूर पड़ेगा, यह असर क्या हो सकता है इस बारे में रामपुर के पत्रकार तमकीन फ़ैयाज़ कहते हैं, "देखिए आजम खान के क़द पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. ये सीट हारी है लेकिन सपा आजमगढ़ की भी सीट साथ-साथ हार गई जिसमें तमाम समाजवादी पार्टी के बड़े नेता और तमाम लोग इसमें जूझ रहे थे. और यहां अकेले आज़म ख़ान अपने बल पर चुनाव लड़ा रहे थे."

अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिन्दू' अखबार के उत्तर प्रदेश के संवाददाता ओमर रशीद कहते हैं कि यह आज़म खान के लिए "एक सेटबैक है. कि आपकी उतनी चलती नहीं, जो आप दिखाना चाहते थे, दिखाना चाह रहे थे, दिखा सकते थे. अगर जेल से निकलने के बाद वो एक जीत देते तो वो संदेश जाता कि वो अभी भी एक क़ाबिल नेता हैं और मास लीडर हैं. और उन्हें उसके लिए अखिलेश यादव की ज़रूरत नहीं है."

अखिलेश यादव ने रामपुर से दूरी बना कर रखी तो रामपुर की हार के बाद उसका उनकी छवि पर क्या असर पड़ सकता है?

ओमर रशीद कहते हैं, "आपके पास तीन लोकसभा सीट हैं. दो पर उपचुनाव हैं और उन दो सीटों को बचाने के लिए आपने मेहनत नहीं की. आपने एक भी रैली नहीं की. जबकि योगी आदित्यनाथ दोनों जगह गए. और वो आजमगढ़ से सांसद रह चुके हैं तो कम से काम वो वहां ही चले जाते."

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क्या मुस्लमान वोटर ने सपा से अपनी नाराज़गी दिखाई?

इन चुनावी नतीजों के बारे में एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की दिलचस्प प्रतिक्रिया आई.

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उन्होंने ट्वीट करते हुए कहा, "नतीजे से साफ़ ज़ाहिर होता है कि सपा में भाजपा को हराने की न तो क़ाबिलियत है और ना क़ुव्वत. मुसलमानों को चाहिए कि वो अब अपना क़ीमती वोट ऐसी निकम्मी पार्टियों पर जाया करने के बजाय अपनी खुद की आज़ाद सियासी पहचान बनाए और अपने मुक़द्दर के फैसले ख़ुद करें."

साल 2022 विधानसभा के चुनावों के बाद अखिलेश यादव को पार्टी के कुछ मुसलमान नेताओं की नाराज़गी झेलने पड़ी. खुद आज़म खान के निजी सचिव शानू ने खुलेआम एक सभा में उनके ख़िलाफ़ बयान दिए. जिससे यह मैसेज जाने लगा कि अखिलेश यादव मुसलामानों से वोट तो मांगते हैं लेकिन उनके बुरे वक्त में उनके साथ नहीं खड़े होते.

क्या मुसलामानों ने इस चुनाव में कोई मैसेज देने की कोशिश की है? इस बारे में पत्रकार ओमर रशीद कहते हैं, "अगर आज़मगढ़ में देखें तो तो बसपा के गुड्डू जमाली ने भी काफी अच्छा प्रदर्शन किया है. हम यह मान सकते हैं कि उन्हें काफ़ी अच्छा मुस्लिम वोट भी मिला है. तो शायद मुसलमान इस मूड में थे कि हम सपा को सबक सिखाएंगे क्योंकि वो हमारे पक्ष में इतना नहीं बोलते हैं जितना हम वोट देते हैं."

ओमर कहते हैं, "रामपुर में भाजपा बनाम सपा था. इतने ज़्यादा प्रतिशत मुसलमान थे, लेकिन वोट प्रतिशत कम था और भाजपा जीत गई. तो इसका कसूर सपा किसी तीसरी पार्टी को नहीं दे सकती है. यह तो सपा की हार है, भाजपा की जीत नहीं है."

अखिलेश यादव और मायावती की फ़ाइल फ़ोटो

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इस चुनाव में क्या बसपा बड़ा फैक्टर रहा है?

2019 में आज़म खान की रामपुर की लोक सभा जीत में बसपा-सपा के गठबंधन भी एक बड़ा फैक्टर था. लेकिन इस बार बसपा ने रामपुर का उपचुनाव लड़ने से मना कर दिया. तो क्या इस फ़ैसले का रामपुर के चुनाव पर कोई असर पड़ा?

पत्रकार ओमर रशीद कहते हैं, "कहना मुश्किल है. बूथ लेवल का डाटा मिलता नहीं है. इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है. कोई कहता है कि बसपा का वोट सपा विरोधी है और मुस्लिम विरोधी है तो वो भाजपा में चला गया. और सपा विरोधी और आज़म खान विरोधी वोट भाजपा में चला गया. लोग ऐसे तर्क दे सकते हैं. लेकिन मेरा कहना है कि इसके बावजूद भी सपा को यह दोनों सीटें नहीं हारनी चाहिए थीं क्योंकि सपा का मूल वोटर वहां पर है. और उनके पास आज़म खान जैसा मज़बूत नेता है. भाजपा के पास ऐसा कोई लोकल नेता नहीं है."

लेकिन रामपुर के पत्रकार तमकीन फ़ैयाज़ अलग राय रखते हैं. उनका मानना है कि, "बीजेपी के कैंडिडेट को जिस तरीके से वोट मिला है और उससे बिल्कुल ये बात स्पष्ट हो रही है कि उन्हें बड़ी तादाद में जाटव समाज का वोट मिला है. रामपुर की लोकसभा सीट पर करीब एक लाख जाटव वोटर हैं. जिसमें से 80 हजार और 70 हजार वोट पड़ते हैं. अब इसमें समाजवादी पार्टी को बेहद कम वोट मिलता नजर आया है और ज़्यादातर वोट बीजेपी को ही गया है."

आजमगढ़ में बसपा ने शाह आलम उर्फ़ गुड्डू जमाली को टिकट दिया और उन्हें ढाई लाख से भी अधिक वोट मिले. 2019 के लोक सभा वाले चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन की वजह से यह वोट आज़मगढ़ से अखिलेश यादव की बड़ी जीत की वजह बना था.

रामपुर के पत्रकार तमकीन फ़याज़ याद दिलाते हैं कि आज़म खान ने खुद आज़मगढ़ जाकर धर्मेंद्र यादव के लिए वोट की अपील की थी वो भी आख़िरी मौके पर जब पार्टी को बसपा के गुड्डू जमाली की मज़बूती का एहसास होने लगा था.

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क्या कहते हैं ये नतीजे अखिलेश यादव के नेतृत्व के बारे में?

अखिलेश यादव ने 22 जून को मतदान के पहले ट्वीट किया था, "भाजपा सरकार उपचुनाव में अपनी हार से घबराकर सपा के कार्यकर्ताओं को थाने में बैठा रही है लेकिन उसे याद रहे जहां लाखों लोग सपा के साथ हैं वहाँ उनकी ये गीदड़-भभकी काम नहीं आनेवाली. जितना अधिक दबाव बढ़ेगा, सपा के समर्थन में उतना अधिक मतदान बढ़ेगा. सपा प्रत्याशी की ऐतिहासिक जीत होगी!"

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उपचुनावों में अक्सर सत्ताधारी दल पर परेशान के दुरुपयोग के आरोप लगते हैं. लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या विपक्ष ने मज़बूती से मुकाबला किया या नहीं?

इस उपचुनाव में अखिलेश यादव का नेतृत्व ट्विटर पर ज़्यादा और ज़मीन पर कम दिखा.

उनके पार्टी के करीबी माने जाने वाले राजेंद्र चौधरी ने मतदान से पहले बीबीसी से कहा था कि, "तैयारी तो आज़मगढ़ की जनता और मतदाता ने समाजवादी पार्टी के पक्ष में कर रखी है. वो तो जनता पर विश्वास है अखिलेश यादव को और जनता का विश्वास अखिलेश के साथ है. वहां के लोगों ने आकर कहा है हम समाजवादी पार्टी के साथ हैं और हम बीजेपी के ख़िलाफ़ वोट करेंगे. वहां पर पार्टी के नेताओं और विधायकों ने कहा कि जनता सपा के साथ है, अखिलेश यादव को वहां आकर प्रचार करने की जरूरत नहीं है. हम लोग जीत रहे हैं."

वीडियो कैप्शन, क्यों, कब और कैसे हुई ये शुरुआत और अब किस दिशा में चल रहे हैं बुलडोज़र?

अखिलेश यादव ने इस हार के बाद भी ट्वीट किया कि, "भाजपा के राज में लोकतंत्र की हत्या की क्रोनोलॉजी: नामांकन के समय चीरहरण - नामांकन निरस्त कराने का षड्यंत्र - प्रत्याशियों का दमन - मतदान से रोकने के लिए दल-बल का दुरुपयोग - काउंटिंग में गड़बड़ी - जनप्रतिनिधियों पर दबाव - चुनी सरकारों को तोड़ना. ये है आज़ादी के अमृत काल का कड़वा सच."

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लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या इस उपचुनाव में अखिलेश यादव ने नैरेटिव बनाने का मौका गंवाया है?

इस बारे में पत्रकार ओमर रशीद कहते हैं, "इस माहौल में अखिलेश यादव के नहीं जाने से एक ग़लत मैसेज गया है कि वो एक्टिव पॉलिटिक्स में इतना एक्टिव नहीं रहना चाहते हैं. इस छोटे से चुनाव से एक बड़ा संदेश देने का मौक़ा था. जब देश में अग्निपथ जैसे प्रोटेस्ट हो रहे हैं और उस माहौल में भी विपक्ष चुनाव हारा है. इन दोनों सीटों पर जीत दर्ज करके आप अपनी मौजूदगी दिखा सकते थे. तो हम इसे अखिलेश यादव की एक चूक ही कहेंगे."

वीडियो कैप्शन, वो गांव जहां पानी की कमी के चलते शादियां नहीं हो रही

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