आरडी बर्मन: हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते मगर...
- अशोक पाण्डे
- लेखक, बीबीसी हिंदी के लिए
पंचम दा की धुनों में लगातार हवा, बारिश और धूप की जुगलबंदी सुनाई देती है. उनके संगीत की रेंज इतनी बड़ी और भव्य है कि वह कब-कहाँ आपको अपने आगोश में ले लेगा कहा नहीं जा सकता.
पंचम दा होते तो वे 27 जून को अपना 83वां जन्मदिन मना रहे होते.
आप 'चिंगारी कोई भड़के' या 'ओ मांझी रे अपना किनारा' सुनते हुए उदास हो सकते हैं और 'महबूबा महबूबा' या 'तुम क्या जानो मोहब्बत क्या है' में उनकी गूंजती-भारी आवाज़ के अनूठेपन में डूब सकते हैं. 'आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे' और 'हमें तुमसे प्यार कितना' जैसे उनके असंख्य गीत आपको गहरी रूमानियत में डुबो सकते हैं.
गुलज़ार की 1977 की फिल्म है 'किताब'. उसमें रात के धुंधलके में चलने वाली रेलगाड़ी का एक उम्रदराज़ खलासी हर रात एक बेनाम स्टेशन से गाड़ी के गुजरने का इंतज़ार करता है. उस स्टेशन का नीम-अंधेरा एक प्रौढ़ होती औरत की हंसी से रोशन होता है जो गाड़ी को लालटेन से हरा सिग्नल दिखाने का काम करती है.
रेल की सीटी, इंजन के माथे पर जलती बत्ती और लालटेन के विजुअल के बाद गिटार पर अजीब-सी बेहोशी और तनाव पैदा करने वाला फ्लैंजर इफेक्ट बजना शुरू होता है. फिर धन्नो नाम की वह स्त्री दिखाई देती है. कुल दस-पांच सेकंड को अपनी झलक दिखाने वाली यह नायिका खलासी के जीवन का उजाला है और वह गाता है -'धन्नो की आंखो में है रात का सुरमा और चांद का चुम्मा.'
गाने के शब्द, उसका संगीत और फिल्मांकन सब कुछ किसी साइकोलोजिकल थ्रिलर की गति से घटता है और अपने मोहपाश में बांध लेता है. खलासी को महबूबा की झलक मिल गई है. वह और उत्साह में आकर गाता जाता है.
फ्लैंजर इफेक्ट में गिटार बजता जाता है. किसी आशिक की सांस सरीखी ट्रेन की सीटी गिटार की आवाज को एक रहस्यमय धौंकनी बना रही है. इसी रफ़्तार में हमें घिरती हुई शाम का नीली रात में बदलना दिखाई देता है. प्रेयसी के साथ बिताये किसी अन्तरंग क्षण की स्मृति को दोबारा से जीता हुआ खलासी अपनी मोहब्बत को जबान देता है -'धन्नो का गुस्सा है पीर का जुम्मा और चांद का चुम्मा.
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समाप्त
अमूमन ऐसे तेज़ गानों का एक समापन होता है - एक रिलीज जिसमें तीन-चार मिनट तक बांधी गई काइनेटिक ऊर्जा को ठहराव मिलता है -जैसे बांध में इकठ्ठा किया गया पानी नहर में छोड़ा जाता है. इस गाने में कोई रिलीज नहीं है. वह उसी रफ़्तार पर ख़त्म भी होता है. धन्नो के आशिक बने अभिनेता राममोहन के ईमानदार एक्स्प्रेशन इस रफ़्तार को सुकून बख्शते हैं.
रमेश अय्यर के गिटार और मारुतिराव कीर के तबले के विकट संयोजन के अलावा एम संपत का कैमरा और गुलजार के निर्देशन में किए गए इस अकल्पनीय प्रयोग ने फिल्म देखने-सुनने वालों को अचरज और प्रसन्नता से भर दिया था.
इन सब के बावजूद सच यह है कि धन्नो का यह गाना सिर्फ और सिर्फ पंचम दा का है. जैसे उस्ताद मछुआरों का फेंका जाल नदी के शांत बहाव को बाधा पहुंचाए बिना उसकी सतह के बड़े हिस्से पर पसर जाता है, उनकी आवाज़ भी कई परदों को भेदती हुई गिटार और तबले की असंभव जुगलबन्दी के समानांतर फैलती जाती है.
आज से चालीस-पैंतालीस साल पहले ऐसी आधुनिक कम्पोज़िशन का खयाल तक कर सकना दूर की कौड़ी रहा होगा. पंचम दा के संगीत की अद्भुत यात्रा को समझने के लिए इतिहास के कुछ पन्ने खोलने पड़ेंगे.
बर्मन परिवार का इतिहास
1862 में त्रिपुरा के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन की असमय मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे ब्रजेन्द्रचन्द्र ने गद्दी संभाली. थोड़े ही समय बाद ब्रजेन्द्रचन्द्र की भी हैजे के कारण मौत हो गई. कायदे से ईशानचन्द्र के छोटे बेटे नवद्वीपचन्द्र को अगला राजा बनना था लेकिन अदालत के एक आदेश के तहत ईशानचन्द्र के भाई बीरचन्द्र को गद्दी हासिल हुई.
इस घटनाक्रम के बाद नवद्वीपचन्द्र अपने परिवार को लेकर कोमिला चले गए जो आज बांग्लादेश का हिस्सा है. इन्हीं नवद्वीपचन्द्र देव बर्मन की नौ संतानों में सबसे छोटे थे सचिन देव बर्मन यानी राहुल देव बर्मन के पिता.
यह कल्पना करना दिलचस्प है कि अगर सब कुछ हिसाब से चला होता और नवद्वीपचन्द्र राजा बन गए होते तो संभवतः हम एसडी बर्मन और आरडी बर्मन के संगीत से वंचित रह गए होते. भारतीय फिल्म संगीत में पिता-पुत्र की इस कमाल जोड़ी ने मिल कर किस कदर समृद्ध किया है, उसका ठीक-ठीक बखान तक नहीं किया जा सकता.
एस डी बर्मन या सचिन दा ने बचपन से ही शास्त्रीय संगीत से लेकर बंगाल की समृद्ध लोक-संगीत परम्परा को आत्मसात करने का काम तो किया ही, साहेब अली जैसे फकीरों से सूफी गीतों और नजरुल इस्लाम जैसे महाकवियों से कविता की तालीम हासिल की.
करियर की शुरुआत में एसडी ने रेडियो में गाना और संगीत का ट्यूशन देना शुरू किया. 1937 में उन्होंने अपनी एक शिष्या से विवाह कर तो लिया पर राजपरिवार ने अपनी नवेली बहू को समुचित सम्मान नहीं दिया. इस बात से खफा एसडी ने खुद को त्रिपुरा की अपनी राजसी जड़ों से दूर करना शुरू किया और फिर कभी त्रिपुरा नहीं गए.
तुबलू बन गया पंचम और फिर आरडी बर्मन
दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो ही रहा था जब 27 जून 1939 को उनके घर एक बालक जन्मा जिसे राहुल नाम दिया गया. घरेलू नाम धरा गया तुबलू. तुबलू के आगे चलकर पंचम बनने के बारे में कई किस्से हैं.
एक किस्सा यह चलता है कि शिशु राहुल पाँच सुरों में रोया करते थे, जबकि दूसरे के मुताबिक़ जब भी रियाज़ करते हुए एसडी बर्मन 'सा' गाते थे, बालक राहुल सप्तसुर के पांचवें सुर यानी 'पा' गाना शुरू कर देते. खुद राहुल का कहना था कि उन्हें यह नाम उनके पारिवारिक मित्र और पुराने अभिनेता अशोक कुमार का दिया हुआ था.
एक जिद्दी और बड़े जीनियस का बेटा होना पंचम के लिए आसान नहीं रहा होगा. वे लड़कपन में प्रवेश कर रहे थे जबकि बंबई में उनके पिता भारतीय सिनेमा के संगीत का वह दौर रच रहे थे जिसे गोल्डन एज कहा जाने वाला था. हिन्दी फिल्मों में हिन्दुस्तानी क्लासिकल को आधार बना कर एक से एक मीठी धुनें बनाई जा रही थीं जिनमें राग और स्वर के अलावा भाषा की भी शुद्धता को जरूरी तत्व के तौर पर शामिल किया जाता था.
ग्यारह-बारह साल की उम्र से पंचम ने अपने पिता के साथ स्टूडियो जाना शुरू किया और फ़िल्मी संगीत को रेकॉर्ड किए जाने की बारीकियां नज़दीक से देखीं और सीखीं. बेटे की नैसर्गिक संगीत प्रतिभा को पहचान कर एसडी बर्मन ने उसे जल्दी ही अपना सहायक बना लिया.
बिना किसी ट्रेनिंग के पंचम ने तब तक अनेक तरह के साज़ बजाना सीख लिया था. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के अनुसार पूरे देश में आरडी बर्मन जैसा माउथऑर्गन बजाने वाला कोई न था. बहुत कम लोग जानते हैं कि 'है अपना दिल तो आवारा' में माउथऑर्गन का जो टुकड़ा बजता है, पंचम दा का बजाया हुआ है.
राजश्री प्रोडक्शन की सुपरहिट 'दोस्ती' के गानों में बजने वाला अविस्मरणीय माउथऑर्गन का टुकड़ा भी उन्हीं का बजाया हुआ है. बाद के सालों में पंचम दा ने उस्ताद अली अकबर खान,पंडित समता प्रसाद और सलिल चौधरी से बाकायदा प्रशिक्षण भी लिया.
पिता के सहायक के तौर पर काम करते हुए कई बार यह भी होता था कि पंचम किसी बात पर अड़ जाते और एसडी नाराज होकर स्टूडियो से चले जाते. एसडी कहते एक वायोलिन से काम चल जाएगा, पंचम कहते तीन वायोलिन के अलावा एक सैक्सोफोन भी चाहिए होगा. बेटे को अक्सर पिता की ज़िद के आगे हार माननी पड़ती थी.
बतौर स्वतंत्र संगीत निर्देशक पंचम दा की पहली फिल्म थी1961 में बनी महमूद की 'छोटे नवाब'. इस फिल्म में एक उल्लेखनीय गीत है - "मतवाली आँखों वाले, ओ अलबेले दिल वाले." महमूद और हेलन पर फिल्माए गए इस छह मिनट लम्बे गीत में आरडी बर्मन ने अपनी उस अविश्वसनीय प्रतिभा की शुरुआती झलक प्रस्तुत की जिसने अगले बीस-तीस सालों तक एक-से-एक नए प्रयोग करते हुए हिन्दी फिल्म संगीत को हमेशा के लिए बदल दिया.
गीत की शुरुआत तेज़ रफ़्तार कास्टानेट्स की थापों से होती है जिसके बाद लैटिन अमेरिका की फ्लेमेंको शैली वाला अकूस्टिक गिटार बजता है. डांस फ्लोर पर महमूद और हेलन का नृत्य शुरू होता है और गिटार ख़त्म होते ही ऊंचे सुर में मोहम्मद रफ़ी विशुद्ध अरबी शैली में पूरे चालीस सेकेण्ड तक हमिंग करते हैं. असल गीत डेढ़ मिनट बाद शुरू होता है. गीत में कास्टानेट्स, गिटार और वायोलिन के अनूठे मिश्रण के अलावा पारंपरिक जिप्सी संगीत की गूँजें भी सुनाई देती हैं.
फ़िल्मी गाने उन दिनों आम तौर पर तीन से चार मिनट के होते थे. एक राग, एक मुखड़ा और दो या तीन अंतरे. बंधे-बंधाये ढर्रे वाले संगीत उपकरण और फ़िजूल माने जाने वाले प्रयोगों से दूरी. इस एक गीत में आरडी बर्मन ने सारे नियमों को तोड़ते हुए कुछ ऐसा करने की कोशिश की जिसके लिए संभवतः लोग तैयार नहीं थे.
तीसरी मंज़िल से मिली नई मंज़िल
अपनी बात दुनिया तक पहुंचा सकने में आरडी को पांच बरस और लगने थे, वो वक़्त तब आया जब 1966 में 'तीसरी मंज़िल' आई. 'आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा' और 'ओ हसीना जुल्फों वाली' जैसे गाने पहले कभी नहीं सुने गए थे. नासिर हुसैन की इस फिल्म में पंचम ने वह कर दिखाया जिसे हर संगीतकार करना चाहता है.
उन्होंने इतने सारे और इतनी तरह के साजों का इस्तेमाल किया कि विशेषज्ञ तक हैरान रह गए -वाइब्राफोन, वायोलिन, चैलो, चाइम, ट्रम्पेट, ड्रम्स, सैक्सोफोन, कांगो, ट्राईएंगल, कास्टानेट्स और न जाने क्या-क्या. दशकों से मुख्यतः वायोलिन, सितार, गिटार और तबले पर निर्भर रहने वाले फिल्म संगीत में यह एक अभिनव प्रयोग था जिसमें मनोहारी सिंह और कर्सी लॉर्ड जैसे दिग्गज अरेंजरों की मदद से परफेक्शन हासिल की गई थी.
यह 1960 की दहाई के बीच के साल थे - पश्चिमी देशों में एक नए किस्म के सांस्कृतिक पुनर्जागरण हो रहा था. लेड जैप्लिन, जॉन लेनन, लेनर्ड कोहेन और बीटल्स का ज़माना था. कविता में बीटनिक कवियों ने सारी बनी-बनाई धारणाओं को ध्वस्त करने का बीड़ा उठाया हुआ था. हिप्पी आन्दोलन अपने चरम पर था और संसार भर के युवा दुनिया को एक बनाने का सपना देख रहे थे. यह चेतना भारत भी पहुँची. नया सिनेमा बनाया गया, नए साहित्य का सृजन हुआ और युवाओं ने यात्राएं करना शुरू किया.
आरडी बर्मन के सर्वश्रेष्ठ काम के पीछे उस समय की उस वैश्विक चेतना ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई. अपने युग की आत्मा को अगर किसी ने पूरी तरह आत्मसात किया तो वह पंचम ही थे. यह उन्हीं का हौसला था कि उन्होंने अपने संगीत में लैटिन अमेरिका के साल्सा, फ्लेमेंको और साम्बा को भी जगह दी और अफ्रीकी लोकधुनों को भी.
उनकी रचनाओं में तमाम पाश्चात्य शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत के तत्वों का भी समावेश पाया जाता है और अरबी संगीत का भी. मशहूर जैज़ गायक लुई आर्मस्ट्रांग को अपना आदर्श मानने वाले पंचम दा ने जैज़ के अलावा इलैक्ट्रोनिक रॉक, फंक और ब्राज़ील के मशहूर बोसा नोवा संगीत को भी अपने काम का हिस्सा बनाया. 1987 में मशहूर लैटिन अमेरिकी कम्पोज़र होसे फ्लोरेस के साथ मिलकर उन्होंने 'पान्तेरा' नाम का एक शानदार अल्बम भी रिलीज किया.
वैश्विक चेतना से भरपूर इस शानदार संगीतकार ने बंगाली लोकसंगीत और हिन्दुस्तानी क्लासिकल के सारे आयामों के अलावा हमारे देश की सांस्कृतिक बहुलता और विविधता को भी पूरा सम्मान दिया और अकल्पनीय प्रयोग किए. 1981 की फिल्म 'कुदरत' में उन्होंने 'हमें तुमसे प्यार कितना' को किशोर कुमार से भी गवाया और परवीन सुल्ताना से भी, जो दरअसल परंपरागत ठुमरी शैली में है.
पंचम दा ने अपनी सुनी हर ध्वनि को अपने काम में जगह दी या देने की कोशिश की. बारिश की बूंदों का गिरने से लेकर, किसी भिखारी की सदा और चरवाहों के अपने पशुओं के साथ होने वाले संवाद से लेकर पेड़ों-पत्त्तियों की सरसराहट - सब कुछ उनकी स्मृति में दर्ज होता रहा.
रेगमाल, बांस, कप, प्लेट, शंख, कंघी, कांच की बोतलें और गत्ते-लकड़ी के बक्से जैसी चीजें उनकी धुनों में संगीत उपकरणों की तरह प्रयोग हुईं. कोई कल्पना करेगा कि 'शोले' में खुद पंचम दा का गाया 'महबूबा, महबूबा' यूनान के एक गीत से प्रेरित है जिसमें आने वाले अंतरालों को भरने के लिए पानी से भरी बीयर की बोतलों से निकलने वाली आवाज़ों का इस्तेमाल किया गया.
1960 और 1970 के दौरान स्थापित हुए क्रमशः शम्मी कपूर और राजेश खन्ना के कल्ट पंचम दा के संगीत के बगैर संभव नहीं थे. 1980 का दशक उनके उतार का ज़माना था. हिन्दी फिल्मों से रोमांस जा रहा था और एंग्री यंग मैन जैसी थीम्स और डिस्को जैसे तत्वों का प्रवेश हो रहा था. नासिर हुसैन और देव आनंद जैसे निर्माताओं ने, जो पंचम दा के संगीत के बिना अपनी फिल्मों की कल्पना नहीं कर पाते थे, दूसरे संगीत निर्देशकों को आजमाना शुरू किया. यह मुश्किल दौर था लेकिन उनके चमकीले संगीत की कौंध जब-तब दिखाई दे जाती थी.
4 जनवरी 1994 को कुल 54 साल की आयु में जब दिल के दौरे से पंचम दा का असमय देहांत हुआ वे विधु विनोद चोपड़ा की '1942 ए लव स्टोरी' का संगीत रच रहे थे. यह बड़ी विडम्बना है कि जिन पंचम दा को दस-बारह साल पहले चुक गया माना जा रहा था, अगले साल इसी संगीत के लिए उन्हें मरणोपरांत सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया.
आरडी बर्मन के यहां एक तरफ परम्परा को लेकर गहरा आदर दिखाई देता है तो दूसरी तरफ उसे लांघ जाने का बेचैन हौसला भी. यह शानदार विरोधाभास अक्सर उनके एक ही प्रोजेक्ट में देखने को मिल जाता था. मिसाल के तौर पर 1972 की फिल्म 'परिचय' में एक तरफ 'बीती ना बिताई रैना' जैसा शास्त्रीय गीत भी है तो 'सा रे के सा रे गा मा को ले के गाते चले' जैसी बेहद आधुनिक और जीवंत कम्पोजीशन भी. अपनी समकालीनता को लगातार समृद्ध करते चले जाने वाले वे ऐसे सचेत कलाकार थे जिनके लिए नए रास्तों का बनाया जाना सबसे महत्वपूर्ण था.
जब उन्होंने हिन्दी सिनेमा संगीत में अपने पहले धमकभरे कदम रखे थे, उन्हें तकरीबन विद्रोही माना गया लेकिन चालीस सालों बाद भी उनकी शुरुआती धुनें तमाम शक्लों-सूरतों में हर पीढ़ी को रिझा सकने में कामयाब हैं. गानेवाले के स्वर, उपकरणों के प्रयोग और रेकॉर्डिंग की तकनीकों तक ऐसा कोई इलाका उन्होंने नहीं छोड़ा जिसमें कुछ भी नया किये जाने की गुंजाइश थी.
पाश्चात्य संगीत से गहरे प्रभावित उनके संगीत में मूलतः हिन्दुस्तानी आत्मा का वास था. उनकी सबसे बड़ी खूबी यही है कि उन्होंने फिल्म संगीत को बने बनाए चौखट से मुक्त कर उसमें खिलंदड़ी और शरारत के लिए जगह निकाली.
आज निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि एआर रहमान और विशाल भारद्वाज और उन जैसे तमाम युवा संगीतकारों के पास अपनी प्रयोगधर्मिता के लिए जिस तरह की स्पेस उपलब्ध है वहां तक पहुँचने वाले तमाम रास्ते पंचम दा के बनाए हुए हैं. उनका काम इस लिहाज़ से कभी पुराना नहीं पडेगा. मुख्यधारा से बाहर तो हरगिज़ कभी न जाएगा.
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