जरनैल सिंह भिंडरांवाले: सिख संत से खालसा चरमपंथी तक

  • जगतार सिंह
  • वरिष्ठ पत्रकार
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इमेज कैप्शन, जैसे जैसे अकाली नेताओं का जनाधार घटा, वैसे वैसे भिंडरांवाले की सिखों में लोकप्रियता बढ़ती गई, चित्र में- भारत प्रशासित कश्मीर के नेता फ़ारुक़ अब्दुल्ला के साथ भिंडरांवाले

रणप्रिय सिखों में सेना के प्रति झुकाव कई बार उनके नाम से पता चल जाता है. जैसे जरनैल सिंह, करनैल सिंह और मेजर सिंह आदि. जरनैल शब्द की उत्पत्ति सेना के पद जनरल से हुई है, उसी तरह करनैल शब्द कर्नल से आया है.

एक समय पंजाब को ब्रितानी-भारतीय सेना में भर्ती के लिए सबसे उपजाऊ ज़मीन माना जाता था.

ये एक अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि जिस व्यक्ति को 1980 के दशक में सिख चरमपंथ का जन्मदाता माना जाता है, उनके माता-पिता ने उनका नाम जरनैल सिंह रखा था.

संत जरनैल सिंह के नाम के साथ भिंडरांवाले तब जुड़ा जब वो अपेक्षाकृत कम उम्र में सिख धर्म और ग्रंथों के बारे में शिक्षा देने वाली संस्था-दमदमी टकसाल के अध्यक्ष चुने गए.

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इमेज कैप्शन, जरनैल सिंह भिंडरांवाले पंजाब में तीन दशक पहले एक चरमपंथी, कट्टरवादी संत के रूप में उभरे, चित्र में-दमदमी टकसाल के हथियारबंद सिखों से घिरे भिंडरांवाले मानते थे कि लक्ष्य पाने के लिए हिंसा का रास्ता भी ग़लत नहीं

भगत सिंह और संत भिंडरांवाले

इस देहाती नौजवान को औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी.

भिंडरांवाले का रहस्यपूर्ण, लेकिन असाधारण तरीके से प्रमुखता में आना पंजाब में 'मुक्ति' की सबसे भीषण लड़ाई के बारे में काफ़ी कुछ बताता है और इस लड़ाई को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिख सुमदाय से जोड़कर भी देखा जाता है.

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ये आंदोलन भारतीय सरकार की ताक़त से लड़ने में नाकाम रहा. हालांकि संत भिंडरांवले का व्यक्तित्व और सोच अभी भी ज़िंदा है.

पिछले कुछ वर्षो में इस इलाक़े में जिन दो नेताओं की तस्वीरें सबसे अधिक बिकीं हैं वो हैं शहीद भगत सिंह और संत भिंडरांवाले की तस्वीरें.

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इमेज कैप्शन, अपनी गतिविधियों और विचारधारा के कारण संत भिंडरांवाले की चर्चा देश दुनिया के कई हिस्सों में होने लगी. अन्य धार्मिक नेता भी उनके संपर्क में रहे. चित्र में- दिल्ली की जामा मस्जिद के उस समय के इमाम अहमद बुखारी के साथ भिंडरांवाले

भिंडरांवाले का जुड़ाव

इसमें कोई शक नहीं कि इन दोनों नेताओं की तुलना नहीं हो सकती.

जहाँ शहीद भगत सिंह की पहचान एक विचारक के रूप में होती है वहीं भिंडरांवाले का जुड़ाव 'गन कल्चर' या बंदूक की संस्कृति से है.

इसके अलाव एक और दूसरा बड़ा फ़र्क है.

शहीद भगत सिंह कम से कम दक्षिण एशिया में सब के लिए सम्मानित हैं जबकि संत भिंडरांवाले की पहचान एक विशेष समुदाय के नेता के रूप में है.

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इमेज कैप्शन, पंजाब में चल रहे घटनाक्रम पर पूरे देश की नज़र टिकी थी. देश-विदेश से कई पत्रकार और विश्लेषक, लेखक भी इस दौरान पंजाब के घटनाक्रम को क़रीब से देख रहे थे. चित्र में- भिंडरांवाले की एक सभा में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह

दमदमी टकसाल के अध्यक्ष का पद

ऐसे में जितने लोग उनसे प्रेम करने वाले या उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले हैं, शायद उतने या फिर उससे भी अधिक उनकी गिनती है, जो उनसे नफ़रत करते हैं.

एक व्यक्ति हीरो है या चरमपंथी है, यह एक सापेक्ष चीज़ है.

उस समय कोई इस बात की कल्पना नहीं कर सकता था कि 30 वर्ष की आयु में जिस भिंडरांवाले ने दमदमी टकसाल के अध्यक्ष का पद ग्रहण किया.

अगले कुछ महीनों में ऐसी नई परिकल्पना को हवा देगा कि इस सीमांत प्रांत में अप्रत्याशित उथल-पुथल पैदा हो जाएगी.

फिर ये उथल-पुथल एक दशक से अधिक तक चली और इस दौरान निर्दोष लोगों समेत हज़ारों की जान चली गई.

विडंबना ये है कि ऐसे समय जब भारत एक बार फिर चरमपंथ के ख़तरे से दो-चार है, ऐसा प्रतीत होता है कि पंजाब की घटना को लगभग भुला ही दिया गया है.

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इमेज कैप्शन, पंजाब के सिख चरमपंथी नेता भिंडरांवाले वर्ष 1978 के बाद चर्चा में आए. चित्र में- संत जरनैल सिंह (हाथ जोड़े हुए, बाएं में), संत हरचरण सिंह लौंगोवाल और सिख स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के अध्यक्ष भाई अमरीक सिंह (दाएं)

निरंकारियों से टकराव

इस परिस्थिति में पंजाब में चरमपंथ का स्रोत माने जाने वाले संत भिंडरांवाले की इस मामले में पूरी भूमिका का सही ढंग से विश्लेषण करने की आवश्यकता है.

वर्ष 1977 में उनके दमदमी टकसाल का प्रमुख नियुक्त किए जाने के साक्षी, उस समय के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और सिखों की सबसे बड़ी धार्मिक संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह तोहड़ा थे, जो अपनी शुभकामनाएँ देने के लिए वहीं मौजूद थे.

संत भिंडरांवाले की नियुक्ति के तुरंत बाद उस इलाक़े में राजनीतिक विमर्श बदलने लगा.

जिस समय भिंडरांवाले ने दमदमी टकसाल के अध्यक्ष का पद ग्रहण किया था, उस समय दमदमी टकसाल का सीधा टकराव निरंकारियों से हो चुका था.

प्रदर्शनकारी दमदमी टकसाल और अखंड कीर्तनी जत्थे से संबंधित थे.

वर्ष 1978 की ख़ूनी वैशाखी की घटना के बाद पंजाब जैसे हमेशा के लिए बदल गया, दोबारा पहले जैसा कभी नहीं हो पाया.

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परंपरागत आकाली नेतृत्व

कुछ दिनों के अंदर संत भिंडरांवाले ने नया रास्ता अपनाया. जैसा कि इस घटना से स्पष्ट हुआ - न्याय व्यवस्था चौपट हो चुकी थी और बदले की भावना आकार ले रही थी.

पत्रकार होने के नाते उनसे अनेक बार औपचारिक और अनौपचारिक बातचीत करने से ऐसा प्रतीत हुआ कि उसी समय भिंडरांवाले ने मन बना लिया था कि वो अपने पंथ के लिए सर्वोच्च बलिदान यानी जीवन का बलिदान देंगे.

ये उन्हें परंपरागत आकाली नेतृत्व से पूरी तरह अलग करता था.

बाद में हालात भारत के ख़िलाफ़ संघर्ष में बदल गए, चाहे इन हालात का मक़सद ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले तक अस्पष्ट था.

लेकिन ये तो स्पष्ट है कि संत जरनैल सिंह ने कभी ख़ालिस्तान के गठन की माँग नहीं की थी.

यह सही है कि उन्होंने वर्ष 1973 में अकाली दल के पास किए गए आनंदपुर साहिब के प्रस्तावों की बात की थी, लेकिन ये प्रस्ताव स्वायत्ता की बात करते हैं, अलग राष्ट्र की नहीं.

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इमेज कैप्शन, अमृतसर में वर्ष 1978 की अकाली निरंकारी झड़प में 13 अकाली मारे गए थे, चित्र में- रोष प्रदर्शन की अगवानी करते चरमपंथी सिख संत भिंडरांवाले. हालांकि भिंडरांवाले 1979 में एसजीपीसी का चुनाव लड़े पर प्रदर्शन कुछ अच्छा नहीं रहा

स्वर्ण मंदिर परिसर में

भिंडरांवाले की पहचान तब और बढ़ी जब निरंकारी संप्रदाय के अध्यक्ष गुरुबचन सिंह और फिर बाद में हिंद समाचार-पंजाब केसरी अख़बार समूह के संपादक लाला जगत नारायण की हत्या हुई. लाला जगत नारायण निरंकारी संत का समर्थन करते थे.

जब संत भिंडरांवाले दमदमी टकसाल से स्वर्ण मंदिर परिसर में पहुँच गए तो उनके पास लोगों का तांता लगने लगा.

इसके बाद भिंडरांवाले तब तक स्वर्ण मंदिर से नहीं निकले जब तक उनका हिंसात्मक अंत नहीं हो गया.

उनको मानने वाले सिख समुदाय के लोग समाज में विभिन्न पदों और क्षेत्रों में सक्रिय थे. इनमें सेना के रिटायर्ड जनरल, नौकरशाह, शिक्षाविद् और आम लोग शामिल थे.

जिस चीज़ ने उन्हें करिश्माई बनाया वह थी सिख समुदाय से सीधी बात और सिखों में उनकी विश्ववसनीयता. ये विश्वसनीयता काफ़ी हद तक शिरोमणि अकाली दल खोता जा रहा था.

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इमेज कैप्शन, पंजाब संबंधित सिखों की मांगों से जब समस्या जटिल हुई तो कई नेताओं ने राज्य के हालातों को सुधारने की दिशा में मध्यस्थता कर रास्ता निकालने की कोशिश की. चित्र में- सुब्रमण्यम स्वामी भिंडरांवाले से मुलाक़ात करते हुए

ऑपरेशन के समय अकाल तख़्त

उनकी ज़िंदगी मितव्ययी थी और वो दोहरेपन में विश्वास नहीं करते थे. वो ऑपरेशन के समय अकाल तख़्त से भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता चुना.

उनका व्यक्तित्व इससे और भी शक्तिशाली होकर निकला.

इस लेखक ने उनसे 26 मई 1984 को मुलाक़ात की थी जब माना जाता है कि ऑपरेशन के लिए सेना को हरी झंडी दी जा चुकी थी.

वो एक घंटे से अधिक आमने-सामने की मुलाक़ात थी. वो जानते थे कि क्या होने वाला है और हालात से वाक़िफ़ थे.

ये तो है ही कि वो मसले का सम्मानजनक हल निकालने के ख़िलाफ़ नहीं थे. उनके सहयोगी बग़ल वाले कमरे में बंदूक़ की सफ़ाई कर रहे थे.

पैसा और सत्ता उन्हें भ्रष्ट नहीं बना सका और यही बात एसजीपीसी अध्यक्ष गुरुचरण सिंह टोहड़ा के बारे में कही जा सकती है, जिन्होंने उन्हें कई कठिन मौक़ों पर नैतिक समर्थन दिया था, चाहे वे उनके रास्ते से सहमत नहीं थे.

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इमेज कैप्शन, वर्ष 1977 में भिंडरावाले को सिखों की धर्म प्रचार की प्रमुख शाखा, दमदमी टकसाल का मुखिया नियुक्त किया गया. चित्र में- दमदमी टकसाल में भिंडरावाले की नियुक्ति के समय प्रकाश सिंह बादल और एसजीपीसी अध्यक्ष जीएस टोहड़ा

'शहादत की तलाश में...'

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सिख समुदाय के बीच उन्हें ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाक़ों में ज़्यादा स्वीकार्यता मिली.

उनके मिथक की शुरुआत वर्ष 1981 में हुई जब वे मुंबई में पुलिस को धोखा देकर अमृतसर में मेहता चौक पर स्थित अपने मुख्यालय पहुँचे.

दमदमी टकसाल उनके इसी मिथक को आधार बनाकर ऑपरेशन ब्लू स्टार के दो दशक बाद तक उनके ज़िंदा होने की बात का प्रचार करता रहा.

वर्ष 1981 में इस लेखक ने संत भिंडरावाले का इंटरव्यू किया था जिसे एक भारतीय अंग्रेज़ी अख़बार ने इस शीर्षक से छापा था - 'शहादत की तलाश में...'.

उस समय उनके सिख समाज में सक्रिय होने और प्रमुखता में आने का वो पहला साक्षात्कार था.

उन्होंने जिस रास्ते को चुना, वो उन्हें उस अंत तक ले गया जिसे उनकी शायद बहुत पहले से तलाश थी.

(जगतार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्होंने पंजाब से इंडियन एक्सप्रेस के लिए लगभग 25 साल रिपोर्टिंग की है. जगतार सिंह का यह विश्लेषण इससे पहले 6 जून, 2009 को बीबीसी हिंदी डॉटकॉम पर प्रकाशित हो चुका है.)

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